जिंदगी तेरे कितने रंग, मैं समझ न पाया
जिंदगी तेरे कितने रंग, मैं समझ न पाया
पढ़ना चाह तुझे, पर मैं पड़ न पाया
पल पल बदलते उसूल लोगों के,
इन उसूलों को मैं समझ न पाया
जिंदगी तेरे कितने रंग, मैं समझ न पाया
था मुझे संकोच कि, कोई बुरा न मान जाये
मेरे कर्म से किसी की भावना, आहत न हो जाये
सभी लगते थे अपने जैसे,कोई अपना न रूठ जाये
पर कौन अपना,कौन पराया, ये समझ ना आया
जिंदगी तेरे कितने रंग, मैं समझ न पाया
मैं चलता रहा, और सब भूलता रहा
लोगों के दिए जख्मों को,बिसाराता रहा
कुछ देर से ही सही,पर समझ आया मुझे
बड़ा आसन था,ये जिंदगी समझना तुझे
मैं बस अपनत्व को,न विसार पाया
जिंदगी तेरे कितने रंग, मैं समझ न पाया..