जिंदगी गुमनाम
गुमनाम जिन्दगी
जीने का भी
अलग ही
मजा है दोस्तों
न दरवाजे पर कुंडी
न खट खट
न खट पट
है बहुत
बडी दुनियां
वो कहीं
गुमनाम हो गये
उम्मीद है
सब इतनी
शायद किसी
दौराहे पर
मुलाकात हो जाए
थे कभी
जो गुलजार
जिन्दगी में
आज बेबफा हो गये
रहती थी महफिल
रोशन कभी
उनके आने से
आज वो गुमनाम
हो गये
कैसे भुलाएँ उसे
रूह में बसी है वो
कहाँ ढूंढे उसे
गुमनाम वो हो गयी
और आखिर में
दिया जिसने जन्म
राह वो देखते रहे
छोड़ गुमनाम चौराहे पर
“संतोष” वो अनजान
हो गये
स्वलिखित
लेखक संतोष श्रीवास्तव भोपाल