जिंदगीनामा
ज़ुर्म इतने हैं कि सजा ही नहीं,
और ज़ुर्म कितना पता ही नहीं,
सब लगे है उसको ही बचाने में,
मेरी तरफ़ कौन है पता ही नहीं,
खामोश खड़ा रहा मैं जब कभी,
मेरे हिस्से में कुछ मिला ही नहीं,
भला किस पर कैसे भरोसा करें,
सच मंजूर किसी को था ही नहीं,
अब तो लटको दो मुझे सूली पर,
क्या कहें कहने को बचा ही नहीं,