जाहि विधि रहे राम ताहि विधि रहिए
लक्ष्य बदलते रहे सदा, या यूं कह दूं कोई लक्ष्य न था।
जीवन तो जीते रहे मगर, इसका कोई उपलक्ष्य न था।।
या समझूं की जीवन तो, बस पैदा होना और मरना है।
जो भी करना है प्रभु करे, मुझको तो कुछ नहीं करना है।।
समझूं मैं समर्पण भाव इसे, या तुमको कायर भीरू कहूं।
या कहूं संत ऋषि मुनि तुम्हे, या तुमको पैगंबर पीर कहूं।।
चौरासी लाख योनियों में तुमको, विशेष गुणों से साजा है।
पिता, पालक और संहारक, इन तीनों गुणों से नवाजा है।।
हे ईश्वर के श्रेष्ठ कीर्ति, उठ जाओ त्यागो कुंभकर्णी नींद।
केवल मानव के नहीं अपितु औरों के भी तुम हो उम्मीद।।
न रहो उदर तक तुम सीमित, बक्षस्थल का भी ध्यान करो।
मस्तक को ब्रह्माण्ड बनाकर, तुम भूजदंडो का संधान करो।।
नख-सिख तक उपयोगी हैं, जो ईश्वर ने तुमको हैं दान दिए।
पुरखों ने तो सदुपयोग कर, जड़ चेतन का है कल्याण किए।।
चरना खाना चुगना खाना,भक्षण ही पशु पक्षी के लक्षण है।
पालक बनकर बिचरे जग में, यही मानव के सुभ लक्षण हैं।।
बदलो अब ये बात ‘जाहि विधि राखे राम वाही विधि रहिए।’
‘संजय’ बात अभी से ‘जाहि विधि रहें राम वाही विधि रहिए’।।