जाने क्यों
रोज लिखते हैं
रोज खपते हैं
जाने क्यों हम
रोज मरते हैं।।
कल्पना लोक..!!
में मैं और तुम
उड़ते हैं दूर तक
पंख कटे पांखी से।।
उपदेशों की पोथियां
प्रकृति के उपमान..
सम्मान औ अपमान
तुला दंड पर बैठे जज
भीगी पलकें, तकती राह
दिलों से निकलती आह
बेबसी, लाचारी, चितवन
ऋत को ऋत न लिखने
की यूँ समझो सरगम…।।
असत्य है किंतु सत्य है
अमर्त्य है किंतु मृत्य है
दिन नहीं, रात में पूछना
रामंगम कितना कृत्य है।
आओ आँख पर पर्दा डालें
देखा, सुना सभी नकार दें
शिखंडी बन महाभारत में
ऋण सिंहासन के उतार दें।।
बात बुरी है, मानता हूँ विप्र
धृतराष्ट्र हैं सभी, यही फिक्र
बैठे हैं हम महाभारत लिखने
व्यास से उग्र और गणेश वक्र।।
सिकती रोटियां, तकती रोटियां
पेट से दूर, दूर बहुत दूर रोटियां
चाहो खाना मगर खा ना सको
सोना चाहो मगर सो न सको।।
कौरवों सी कौंधती आंखें
पांचाली जैसी रौंदती सांसें
बेबस, लाचार असहाय वीर
बोलो, लिख पाओगे यह पीर।
विरासत पर कब तक जियोगे
कुछ रचो अपनी भी महाभारत
अब न सारथी कृष्ण न अर्जुन
शब्द छलनी, कुंती दर्द आगत।।
सूर्यकान्त द्विवेदी