जाने क्यों वो सहमी सी ?
जाने क्यों वो सहमी सी,
सिमटी सी है दीवारों में ।
कितने पहरे लगा दिए हैं,
मन के सब गलियारों में ?
शान्त बहुत शंकित सी है,
न जाने किससे डरती है ?
सब बन्द द्वार करके बैठी
न पल भर कहीं ठहरती है ।
मन का सम्बल ऐसे बिखरा
अपनेपन से भय खाती है ।
जिसको विपदाएं न तोड़ सकीं
उसको नित हार हराती है ।
कोई मिलती न प्रतिछाया,
है तमस गहन इतना मन में ।
सूरज भी भेद न पाया पथ
जो दे उजियारा उस मन में।