जाने क्यूँ ?
धुवें की अक्स बन अक्सर यादें क्यूँ झलकते हैं
पुराने ज़ख्म भी नासूर बन कर क्यूँ उभरते हैं
दबाएँ भींच कर मुश्किल से लब पे सिसकियां कितने
मगर ये आँसु बन पलको से आखिर क्यूँ छलकते हैं
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धुंवे की अक्स बन अक्सर जाने क्यूँ ?
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कभी ये शोर बहती नदियों का थम जाएगा शायद
बदल प्रवाह उन्मादी लहर सागर में रम जाएगा शायद
मगर अफसोस बूंदों का अस्तित्व कोई न पूछेगा
बिछड़ कर मेघो से वो बंजर धरा पर क्यूँ बरसते हैं
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धुंवे की अक्स बन अक्सर जाने क्यूँ ?
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हवाएं दूर देशो से ये क्यों कोई पैगाम लाती हैं
उड़ा के खुशबू अपनो के छुपे सलाम लाती हैं
बिछड़ना शौक नही होता मगर ये खेल किस्मत का
जो जाते छोड़ राही उनके लिए दिल क्यूँ तरसते हैं
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धुंवे की अक्स बन अक्सर जाने क्यूँ ?
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यही बस सोचता रहता हूं मैं तो अक्सर अकेले में
क्यूँ तन्हा महसूस करता हूँ सदा दुनिया के मेले में
मगर ना जान पाया “चिद्रूप” ये भी जाने क्यूँ
जलते चिराग को देख परवाने क्यों मचलते हैं
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धुंवे की अक्स बन अक्सर जाने क्यूँ ?
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©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २६/१०/२०१८ )