— जाने कहाँ गए वो दिन–
कभी न कभी
याद आ ही जाते हैं
वो गुजरे हुए दिन
जब किसी राह चलते
ढाबे पर मिल जाया
करता था लजीज खाना
कीमत ऐसी कि
आज वो पन्ने खोल कर
देखें तो अचम्भा सा होता है
कितना सस्ता था
सब कुछ , क्या गजब
वो जमाना था
घर का मुखिया चन्द
रुपओं से गुजर बसर
कर के बचा लेता था
न जाने कितने
बच्चों को आराम से
पढ़ा भी लिया करता था
वो साईकल बड़ी मस्ती
से न जाने कितना सफ़र
आनंद से करवा देती थी
न होती थी कोई
दुर्घटना , न जाने कहाँ
कहाँ घुमा लाती थी
परिवारों का कितना सुख
दुःख मिल बाँट उठाते थे
जरुरत न रही होगी
किसी की कभी उनको
घर के ही कितने घराती
बेटी की शादी में हाथ
बटाते थे
नही आ सकते वो दिन जिन को
हम याद कर लिया करते हैं
बिखर गए हैं तिनके, पत्ते
शाखाएं , अब घर पर
यह सब नजर कहाँ आते हैं !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ