जानी न वक़्त की है रियासत कहाँ कहाँ
जानी न वक़्त की है रियासत कहाँ कहाँ
पल-पल क़दम-क़दम पे मुसीबत कहाँ कहाँ
नज़रें अगर हैं ख़ास हक़ीक़त को जान लें
बिखरी है हर तरफ़ ही सदाक़त कहाँ कहाँ
सहरा पहाड़ दश्त समुन्दर कभी नदी
लेकर गई है मुझको ये क़िस्मत कहाँ कहाँ
दुनिया जहान सब पे फ़क़त छोड़कर मुझे
लेकिन रही है उनकी इनायत कहाँ कहाँ
कितनी ही चौखटों पे गई ले के वो मुझे
मज़बूरियों के साथ में गुरबत कहाँ कहाँ
बनते शरीफ़ सामने कुछ लोग इस क़दर
खाये वो बेचकर हैं शराफ़त कहाँ कहाँ
दुश्मन बना जहान है उल्फ़त के नाम पर
बदनाम हो गई है मुहब्बत कहाँ कहाँ
अपना समझ रहा है मुझे आज तक भी वो
उसने निभा तो दी है अदावत कहाँ कहाँ
लाचारियों में घिर के ही ‘आनन्द’ रह गया
ग़लती के बाद की है नदामत कहाँ कहाँ
शब्दार्थ:- दश्त = जंगल, सहरा = रेगिस्तान, नदामत = पछतावा
– डॉ आनन्द किशोर