जादू की झप्पी, माँ का पल्लू
माँ का पल्लू, इसके बारे में क्या लिखना।
छोटा मुँह बड़ी बात हो जाएगी, जी कहना।
सुबह से शाम, पल्लू के होते कार्य न्यारे।
बचपन बीते हमारे, जी माँ के पल्लू सहारे।।
पल्लू से ही नाक कान मुँह, पोछती थी, माँ।
पल्लू से ही गर्मी में पंखा, झरती थी, माँ।
पल्लू लू से बचाता, बचपन ढाल बन जाता।
सर्दी हो तो बच्चे को लिपटा लेती थी, माँ।
घर आये हो मेहमान, चुपके देखते बच्चू।
कवच सी ढाल, बच्चे को छुपा लेती थी, माँ।
कहीँ होता जाना, तो पकड़ते पल्लू माँ का।
वही हमे पकड़ कर रखता, राह अनजाना।।
पल्लू माँ का, जी क्या क्या, गुणगान करुँ।
तबियत हो खराब, तो लिपटे माँ का पल्लू।।
डॉक्टर जी का इलाज, लिपटा कर ले जाती माँ।
जी एक जादु की झप्पी होती, माँ का पल्लू।।
कुछ बदलते जमाने मे, अब पश्चिमी पहनावे में।
कैसे मिले, जादुई रुमाल, बचपन माँ का पल्लू।।
जी जादू की झप्पी, होता माँ का पल्लू—
(मातृ दिवस पर समर्पित रचना)
(लेखक- डॉ शिव ‘लहरी’)