जाता हुआ दिसम्बर
मयस्सर डोर से
फिर एक मोती झड़ रहा है ,
तारीखों के जीने से
दिसम्बर उतर रहा है
कुछ चेहरे घटे , चंद यादे जुड़ी
गए वक़्त में,
उम्र का पंछी नित दूर और दूर
उड़ रहा है..
गुनगुनी धूप और ठिठुरी राते
जाड़ो की,
गुजरे लम्हों पर झीना झीना
पर्दा गिर रहा है
फिर एक दिसम्बर गुजर रहा है
जायका लिया नही
और फिसल रही जिन्दगी ,
आसमां समेटता वक़्त
बादल बन उड़ रहा है
…फिर एक दिसम्बर गुज़र रहा है..!!
-धर्मजीत वैद्य
बंगरा, झांसी