जागी पलकों पे भी हम उसके राधे थे
कितनी रातें जाग के काटी थी मैंने
कितने दिन रहे मुझ पे सवाली थे
कितने चांद सितारे ऑंखों से नोचे थे मैंने
फिर भी दिल का आंगन खाली का खाली है
कितनी ही गांठे दांतों से खोली थी मैंने
कितनी यादों के पल्लू में गांठे मैंने बांधे थे
इक उस के सिबा दिल के बादी में
दुनियां के सारे रंगों नूर सादे सादे थे
ख्वाबों को मेरे जाने क्या रोग लगा है
जागी पलकों पे भी हम उसके राधे थे
~ सिद्धार्थ