जागरण
जागरण
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कत्ल कर दिया खुद का , इल्जाम भी सिर पर ले लिया
फिर कह दिया खुद से ही मुझे माफ कर दो
मेरा दोष नही इसमें कुछ
अब तो मेरा भी इंसाफ कर दो ।
कोई शै थी जो हावी हो गई
वो एक काला साया था
पता नही, कैसे मुझ पर यकायक आकर छाया था
मैं भी कमज़ोर साबित हुआ उस साये की ताकत के सम्मुख
कर बैठा वो जुर्म जो , कभी नही था करने को उन्मुख ।
क्या हमारा अंतर्मन इतना बेबस हो जायेगा
कोई भी आकर कैसे हम पर हावी हो जायेगा
अपने षड्यंत्रों में फंसाकर, हाथ झाड़ निकल जायेगा
मजबूत करो खुद को, फिर कौन तुम्हे निगल पाएगा।
खुद को मारकर, खुद ही जिंदगी की गुहार
मरुस्थल में ढूंढ रहे हो बारिश की ठंडी बौछार
क्या क्या बदलना चाहते हो
मित्रों सूखे रेगिस्तानों में
यहां की आब ओ हवा को भी क्या
बदल दोगे परिस्तानो में ?
मरुभूमि को मरुधर रहने दो , गर्म रेत में हंसो खेलो
बर्फीले क्षेत्र में जाकर हिम तूफानों को भी झेलो
स्वयं को उस सांचे में ढालों जो वातावरण में रम जाए
प्रकृति के गूढ़तम विषयों से तुम्हारा सान्निध्य बनाए।
नेपथ्य से बाहर आकर ,अपने वैशिष्ट्य का करो प्रदर्शन
फिर कोई शै नही, साया नही,
इल्जाम नही , इंसाफ नही ,
हो जायेगा जब जागरण
सारे असमंजसों का स्थिर स्फूर्ति से
हो जायेगा स्वयं ही भंजन।
रचयिता
शेखर देशमुख
J 1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू 2, सेक्टर 78
नोएडा (UP)