ज़िन्दगी: एक झूठा सार
जब ज़िन्दगी कुछ पनो तक सिमित हो जाये,
रिश्ते सहूलियत के लिए बनाये जाएं,
दोस्ती हरे कागज़ो की लेन-देन बन जाये,
प्यार ख्वाइशे पूरी करने का जरिया हो,
शादी एक संस्था बन के रह जाये..
जहाँ हर गली, हर नूंखड् पर फरेब मिले..
क्या ज़िन्दगी, ज़िन्दगी रह जाती है,
जब आँखें दिन कटने का इंतज़ार करे
दिल मायूसियों से छिप कर धड़के,
कदम बस मंज़िल की ताक लगाए बैठें
साँसे भी दम तोड़ने को तरसे,
भूले बिसरे मुस्कराहट होंठो को छु जाये,
अंधेरा रूह में घर कर जाये,
क्या ज़िंदा रहना, जीने के बराबर हो जाता है,
शायद सब झूठ की दुनिया है,
या अपना ही मन झूठ का साया है,
थक हार के दिल को बस यही समझाया है।
बेबस, लाचारी, बोज, संघर्ष और जिम्मेदारी,
सच बस यही तो कमा पाया है..
पर इन अंगारो पर से जो गुज़ारा,
झूठी ज़िन्दगी से हर मुकाम पे जीतता आया है,
– राकेश कुमार