ज़िंदा ब्रश
कुछ चित्र बहुत खूबसूरती से उकेर दिए,
उस चित्रकार ने।
महकाती मिट्टी, जो चीर रहीं थी नदियों की धाराओं को।
उसने उकेरे पेड़ों पे चहचहाते पंछी,
जो लहरा रहे थे पतली डालियां और हरे पत्ते।
उसने कहाँ मना किया कैनवास पर बिखेरने से आसमां की सुंदरता,
दिखा दिया उसने समय को भी ऋतुओं के रंगीन इंद्रधनुष में।
आखिर उन रंगों ने मिलकर बना दी जान –
बेजान अणुओं में।
और फिर,
अपने ही कैनवास को कर के बदरंग,
आसमां में फैंका धब्बों को,
समय को कर दिया आज़ाद ऋतुओं के बंधन से।
बदल दिए कैनवासों के बहुत से रंग,
जिन रंगों ने उकेरी थी जान,
…
उसने नहीं…
हम जानवरों ने।