ज़िंदगी सुख सोचे —
ज़िंदगी सुख सोचे —-
ये जीवन कब ही तनाव से चलती
हर पल मन अधिक पाने बसती |
बालपन से परीक्षा में जीता मजबूर
सीखना-सीखना बन दक्ष हो कटती |
अधेड़ में धन गम खाना चैन पाना
भाड़ में गई सारी बाते दिखी डसती |
आवास बनाओ परिवार साथ पाओ
बहुत से थोड़ा कम चलती उछलती |
अधिक पाने के विचार लार टपकती
सच्च ना ये जीवन परिवार पनपती।
मिट जाती हवा,जल चोट से तडफ़
होती आपसी वार्तालाप ठाठ समझती।
देख उच्चे महल को रोना व्यर्थ सा
रेखा समय से ही कर लकीरें बदलती।
स्वरचित -रेखा मोहन पंजाब 26/5/23