ज़िंदगी पर लिखे अश’आर
ज़िंदगी तुझसे इतना तो निभा ही देंगे ।
अपने होने की हम खुद ही गवाही देंगे ।।
ज़िंदगी का सवाल देता है ।
मुझको मुश्किल में डाल देता ।।
जो हक़ीक़त कभी नहीं होंगे ।
क्यों मुझे वो ख़याल देता है ।।
देख लेते हम अपनी आंखों से ।
ज़िंदगी ख़्वाब तो नहीं होती ।।
ज़िंदगी सबको अच्छी लगती है ।
लोग मजबूर हो के मरते हैं ।।
बस ख़ाली हाथों के सिवा ।
ज़िंदगी तेरा हासिल क्या है ।।
तुझसे बस तेरा ही पता चाहे ।
ज़िंदगी तुझसे और क्या चाहे ।।
थाम पाया न जिसका कोई मुख़्तसर लम्हा ।
ज़िंदगी हाथ से झड़ती रेत हो जैसे ।।
सांस एक भी नहीं तेरे बस में ।
ज़िंदगी का गुरूर कैसा है ।।
पढ़ने की कोशिशें सभी बेकार हैं तेरी ।
लफ़्ज़ों में ज़िंदगी को समेटा न जाएगा ।।
ज़िंदगी तुझसे यहाँ कौन कटा होता है ।
दर्द हर सांस के हिस्से में बंटा होता है ।।
उम्र भर हो न पाई भरपाई ।
कितनी टुकड़ों में ज़िंदगी पाई ।।
शुरू होती ख़त्म जहाँ से है ।
ज़िंदगी तेरी हद कहाँ से है ।।
डाॅ फौज़िया नसीम शाद