ज़िंदगी तब और अब
ऐ ज़िंदगी !
जब-जब हमने पांव फैलाए
रूप बदलते तेरे नज़र आए,
लगता कभी छन्न से कोई शीशा टूटा
कभी उड़ान भरते आसमां को मुट्ठी में देखा…
वो बीत गए ज़माने
जब रिश्ते, पहनावे, संस्कार ही जाने,
वो ज़रूरत थी तब देश की
वो ज़िंदगी तब मेरी नींव थी…
आज परिपक्व हो चुका समाज है
लोहा मनवाने को मेरा भारत तैयार है,
ग़र खोया था तब, आज पाया है अब
उन यादों से बाहर निकलोगे कब ?
आज कदम हैं उत्कर्ष की ओर
बढ़ाओ हाथ उजालों की ओर,
ये परिवर्तन ही तो जीवन है
यही तो जोड़ती उधड़ी सीवन है…
तब मासूम थी ज़िंदगी
आज हसीन है ज़िंदगी,
तब दो पहियों पर घिसटती थी
आज चार पहियों पर उड़ती है…
हाँ, मानती हूँ बहुत कुछ खोया है हमने
पर जो पाया है वो भी तो थे हमारे सपने,
ज़िंदगी तब और अब, की गवाह हैं हम आखिरी पीढ़ी
जलाकर जीर्ण-जर्जर, भावी पीढ़ी को देकर जा रहे एक नई सीढ़ी।
रचयिता–
डॉ नीरजा मेहता ‘कमलिनी’