ज़िंदगी के सौदागर
ज़िंदगी की बोली लगती है ,
क्या तुम ज़िंदगी खरीद पाओगे ?
क्या उसकी कीमत तुम चुका पाओगे ?
तड़पते जिस्मो जाँ से बग़ावत करती रूह को
क्या तुम मना पाओगे ?
श़फ़्फाक लिबास में दिखते ज़िंदगी के सौदागरों से क्या खुद को बचा पाओगे ?
जहां ज़िंदगी का सौदा दौलत और रसूख़ के दम पर होता हो , वहाँ इन्सानियत ढूँढ पाओगे ?
ज़मीर , ईमान , सबाब , इंसानियत का तक़ाज़ा सब कोरी किताबें बातें होकर रह जाती है ,
जब मुफलिसी की गर्दिश में उखड़ती सांसें लिए ये ज़िंदगी तड़पती रह जाती है।