ज़िंदगी किसे अच्छी नहीं लगती ?
जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती ,
ये महबूबा किसे भली नहीं लगती ।
सताती -रुलाती है बेशक हँसाती भी ,
मगर फिर भी इसकी हर अदा भाती ।
कभी तो सब अरमान पूरे हो जाते हैं ,
और कभी नाचीज़ चाहों को तरसाती ।
चाहे मौकापरास्त कह लो या बेवफा ,
हालात बदलते ही यह पेंतरा बदलती ।.
गम -खुशी है सिंगार जिसके हरदम ,
आह और वाह में सदा यह झुलाती ।
कोई इसे समझ सके तो कामयाब इंसा ,
वरना ये पहेली सभी से नहीं सुलझती ।
कोई तक़दीर का मारा हो जाता है हताश ,
जिंदगी की डोर इसके हाथों से छूट जाती ।