ज़िंदग़ी सिगरेट का धुआँ (नवगीत)
ज़िंदग़ी
सिगरेट का धुआँ ।
कहीं खाई,
कहीं कुआँ ।
ज़रदे जैसी
यह ज़हरीली ,
लाल – हरी
और नीली-पीली ।
बढ़ती देख
सदा जलती है ,
जैसे जले रुआँ ।
पहले कश-सी
यह मीठी है ।
कुछ खट्टी और
कुछ तीखी है ।
पक-पक कर
यह गिर जाती है,
ज्यों – टपके
अमुआँ ।
फिल्टर-सी यह
छन जाती है ।
बनते – बनते
बन जाती है ।
बिगड़े तो
भूचाल मचाये,
ज्यों – मचले
मुनुआँ ।
माचिस की
तीली-सी जलती ।
सुख-दुख में यह,
रहती , पलती ।
ज्यों – समाधि
आनंद प्लाविता ,
केन्द्रित हुई
चेतना ।
ज़िंदग़ी
सिगरेट का धुआँ ।
ईश्वर दयाल गोस्वामी
कवि एवम् शिक्षक ।