ज़मीर
क्यूँ ढूँढ़ता है ? अपने ज़ख़्मों का मुदावा जो
इस ज़माने में ना मिलेगा ,
इस बेदर्द ज़माने में तेरे जख़्मों का
चारा-गर कभी ना मिलेगा ,
इस ख़ुदगर्ज़ जहाँ में किसी हमदर्द का
आस्ताँ तुझे कभी ना मिलेगा ,
तेरा हम- नफ़स ,मोहसिन करम-फरमां ,
मसीहा तुझे कोई ना मिलेगा ,
जज़्ब कर इस ज़िदगी के दर्द को तुझे
ज़िदादिल अंदाज़ से जीना पड़ेगा ,
जगाकर अपने ज़मीर को शिद्दत से तुझे
ख़ुद अपना मुस्तक़बिल बनाना पड़ेगा।