ज़माने की हवा
आज मेरे वतन के गुलों के चेहरे क्यों है बदरंग
जाने क्यों है इतनी ज़हरीली ज़माने की हवा ?
मगरिब या मशरिफ से कहीं से तो आई है ,
बेतकल्लुफ सी मस्तानी ज़माने की हवा ।
यह आज़ाद – खयाली और मिजाज़ बेपरवाह,
ज़ज्बातो को खुश्क कर रही ज़माने की हवा ।
पहले कभी खून में नहीं था बहशीपन,
नफरत का ज़हर घोले ज़माने की हवा ?.
जवां जिंदगियां जबसे गुनाहों में फंसी,
तालीम -ऐ- शमा को बुझाती ज़माने की हवा ।
बड़े-बूढों का लिहाज़ और औरतों की कद्र ,
भुला रही आंखो की शर्म भी ज़माने की हवा।
बनावटी उसूलों से सींचे गए कागज़ के गुल है ,
रिश्तों की नमी को सुखा देगी ज़माने की हवा ?.
ईमान और खुदा को भी किया गया रुसवा ,
दौलत और ऐशो-इशरत में डूबी ज़माने की हवा ।
गुलों का गर यह हाल तो कलियों की पूछिए मत ,
शर्मो -हया का पर्दा गिरा गई ज़माने की हवा ।
क्या खुश्क और बेरंग गुल संवारेंगे वतन का नसीब,
v बहका रही कदम शराब ओ-शबाब ज़माने की हवा।
देखकर नए ज़माने के गुलों का रंग-ढंग हैराँ है अनु ,
किस तरह संभाले जिन्हें बहका रही ज़माने की हवा.