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26 Nov 2016 · 1 min read

ज़माने की हवा हूँ परिंदे उड़ाती फिरती हूँ…………………..

ज़माने की हवा हूँ परिंदे उड़ाती फिरती हूँ
ज़िगर रोकनेवालों का मैं आज़माती फिरती हूँ

ये गली ये रास्ते सब ढूँढते हैं मंज़िल अपनी
मिलाकर हाथ इनके साथ मैं भी गाती फिरती हूँ

यहाँ जात-पात नीच-ऊँच का खेल जाने है कब तक
इसी नफ़रत की आग से दामन बचाती फिरती हूँ

हमारा ध्यान जिसमें खोया है ज़िंदगी की हद तक
कंप्यूटर बहुत अच्छा नहीं समझाती फिरती हूँ

नवाज़ा है अपनी रहमतों से इस क़दर मेरे खुदा
जहां में ख़ुश्बूएँ तेरी ही बिखराती फिरती हूँ

वक़्त के साथ अक़्सर बदल जाया करते हैं मंज़र
वही गलियाँ वही बस्ती तुझको भुलाती फिरती हूँ

बस्तियाँ फैलती रहती हैं यक़सी नीं रहती सदा
तिरी रोशनी से हिस्सा अपना घटाती फिरती हूँ

-सुरेश सांगवान’सरु’

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