ज़माना तेरा कर्जदार न हो जाए:
मैंने ज़माने भर से नफ़रत बटोर ली,
हो सकता है कि इस नफरत से ही मैं फनकार हो जाऊं।..
लोग तो पीते हैं मय खानों में जाक र,
मैंने घर बैठे ही डकार ली,
चले थे इस सफ़र में इस तरह,
कि अपनों का सामान भी थाम लेंगे हम।
किन्तु हकीक़त में खुद भी पिठ्ठू पर लद चुके हैं हम।।
जिन अपनों का सामान लादकर चली थी मै,
वो मंज़िल पर पहुंचकर पहचानने से इंकार कर रहे हैं।
आज जब हालात हो गई बद से बददतर ,
तो वो मेरे घर से बचकर निकलने लगे हैं।
हम तनाव में आकर चीखते हैं इस कदर ,
वो पागल बताकर हंसकर निकलने लगे हैं।
मगर होश में आए हैं हम दो घूंट पीकर ,
इस हकीक़त से रूबरू होने लगे हैं।
अब कुछ कुछ समझ में आने लगा है,
कि कौन ले जाएगा भटकी कश्ती को पार,
और कौन डुबाने की जुगत में भिड़ा है।
यह बात और कि
हम अक्सर ख़ामोश से रहने लगे हैं।
मगर इस खामोशी से डरकर ,
न जाने कितने अपने गैरों की तरह रहने लगे हैं।
रेखा कब तक छुपाओगे यूं इस तरह हकीक़त,
यह प्यार का सागर जो अंतर में समेटे हो
चल इस जहां के गुलों में बिखेर दे।
ऐसा न हो ग्लोबल वार्मिंग के चलते ,
सूखे और बीहड़ रेगिस्तान में
बदल जाए।
जो तूफ़ान समेटे हैअपने अंतर्मन में
उसे स्नेह की बौछारों में परिणित कर डाल,
फिर देखना जमाना तेरा कर्जदार न हो जाए।