“जहाँ हमारा”
बेशक़ बसता होगा यहाँ सबके अंदर एक छोटा-सा शहर।
पर हमारे अंदर तो एक बड़ा-सा जहाँ समाया है।
छोड़ के सारे गम़-ए-दहर।
खुशियों में करतें हैं बसर।
अब और भी कुछ खोनें की हिम्मत बाक़ी है ही नहीं हम में।
वो सब कुछ भी कम है क्या, जिसे हमनें समाज के नाम पर गंवाया है?
-Rekha Sharma “मंजुलाह्रदय”
(नोट- *गम़-ए-दहर= दु:खों का भँवर)