जस्टिस फ़ॉर आसिफ़ा
न ख़ुदा का ख़ौफ़ रहा न भगवान का डर रहा
हैवान दुहाई देने लगे कुछ ऐसा मेरे शहर का मंज़र रहा
दरिंदगी का नंगा नाच चलता रहा कठुआ के देवीस्थान में
ग़र जिसे पूजते थे हम वो पत्थर का पत्थर रहा
बलात्कारियों की सोच और हमारी चुप्पी दोनों का काम एक सा है
दोषियों और हममें अब कहाँ कोई अंतर रहा
सारे मोहल्ले में शोर मच गया,बातों का सैलाब चल पड़ा
मगर छप्पन इंच के सीने वाला चौकीदार बेखबर था सो बेखबर रहा
इस बार तिरंगे का नकाब था पर भीड़ वही थी हर बार की तरह
भक्त भीड़ का हिस्सा बन गए,मुझे मालूम था सो मैं बाहर रहा