जर्जर मानसिकता….
मेरे मन में कुछ विचार हैं जो उथल – पुथल मचा रहें हैं,मैं उन्हें आपके समक्ष रखना चाहती हूँ, ना चाहते हुए भी मैं ये सब व्यक्त करने पर विवश हूँ, मुझे नहीं पता कि इसका उत्तर क्या होगा,पर इतना ज़रूर जानती हूँ कि ये पढ़ने के बाद आप सोचने पर विवश जरूर हो जाएंगे।और यही मेरे उद्देश्य का सफल परीक्षण होगा।
कुछ नहीं बदला,कुछ भी तो नहीं बदला,सब जैसा था वैसा ही है।सब कुछ। कितने भ्रम में थी मैं, मुझे तो लग रहा था कि
नहीं,बदलाव तो आया है,बदलाव तो ज़रूर आया है। पर अब पता चला कितनी ग़लत थी मैं। आज भी वही आडंबर,दिखावा
,वही सोच,वही मानसिकता,सब कुछ तो वही है, तो बदला क्या है,रहने,खाने – पीने के हज़ार तरीके,सुख – सुविधाओं का
महल,बस यही।चाहे दुनियाँ आगे निकल जाए,पर हम ना बदलेंगें, क्यों बदलें?अपनी मानसिकता/सोच को पकड़कर बैठें रहेंगें। क्या करना है आगे जाकर?क्या करना है अच्छे कर्म करके?क्या करना है दूसरों की भलाई करके? भला क्या होगा किसी का अच्छा सोचकर?क्या होगा?कुछ भी तो नहीं।
मोक्ष मिल जाएगा?संतुष्टि मिल जाएगी?या सीधा स्वर्ग लोक को पधार जाएँगे?क्या करेंगें स्वर्ग में जाकर?ज़िन्दगी तो पृथ्वी पर है।उसे नहीं जी,उसका भला नहीं किया,उसमें अच्छा नहीं किया,तब कँहा क्या करेंगें?हँसी आती है,ऐसी सोच पर,ऐसी मानसिकता पर,ऐसे आडंबर पर,ऐसे दिखावे पर।कब तक चलेगा ये सब? क्या इसका कोई अंत नहीं?कब समझेंगें लोग?ज़िन्दगी उनकी है, उनकी ही रहेगी,उनसे उनकी ज़िंदगी कोई नहीं छीन रहा।वे जैसे चाहें अपनी जिंदगी को जियें।अच्छे कर्म करके,बुरे कर्म करके,पाप करके,अच्छी सिख लेकर
या देकर।सबकुछ तो हमारे हाथ ही में है।बहुत व्यथित हूँ,इसलिए कि पीड़ा तब सबसे ज़्यादा महसूस होती है, जब हम स्वयं उसे अनुभव करते हैं,अन्यथा नहीं।अब तक करीब से सुना या देखा जो नहीं था। महसूस कैसे होता। पर अब हो गया। कब तक लोग बेटियों को बोझ मानते और समझते रहेंगें?अरे मैं तो मानती हूँ कि इस पूरी दुनियाँ में जब तक एक भी ऐसी बेटी होगी,जिसे बोझ समझा जाता रहेगा,तब तक वो इस ऋण से मुक्त नहीं हो पाएँगे।परिस्थिति चाहे जो भी हो,यथार्थ तो यही है कि आपने एक जिंदगी ले ली। आप हत्यारे बन गए।इस महापाप से मुक्ति कैसे मिलेगी,कभी सोचा है। क्यों सोचेंगे,आपने तो अपना काम कर लिया बाकी जो भी होगा देख लेंगें। पहले वर्तमान तो सुकून से जी लें,भविष्य किसने देखा है,अगर किसी ने नहीं ही देखा है,तो भविष्य के बारे में सोचकर उसकी हत्या क्यों की ,जन्म लेने के पहले ही उसे क्यों मार डाला? हत्यारे तो आप बन गए।इसके लिए तो आपको माफी मिल ही नहीं सकती है।अगर ये एक बात मन में न हो तो कोई भी पिता अपनी लक्ष्मी के घर आने पर इतना दुखी या उदास क्यों होगा? क्यों उसके जन्म लेने से पहले ही उसे मृत्यु के घाट उतारने के बारे में सोचने लगेगा।बेटी को उसकी शादी में बहुत सारे पैसे दहेज के रूप में जो देने पड़ेंगे
।पहले से तो एक बेटी हैं ही अब दूसरी नहीं।अब एक पुत्र धन चाहिए। अरे ये क्यों नहीं सोचते कि जो है जैसा है दो भले हैं,’हम दो हमारे दो’ इस मंत्र को अपनाइए,संतुष्टि यहाँ से मिलेगी।ध्यान कीजिए उस बेबस माँ की,उस लाचार पिता का
जो कैसी परिस्थिति में आकर इतना बड़ा क़दम उठा लेतें हैं।ये
समाज जिसके लिए हम जीते हैं और मरते भी हैं,कहने को तो
ऐसा ही है। यही समाज हमसे क्या नहीं करवा लेती, कभी – कभी तो हमारे उत्थान और पतन का कारण यही समाज होता है। किंतु ये ग़लती कभी नहीं करनी चाहिए। ‘सुनो सबकी करो अपनी’ सही तरीका है। हमारा समाज एक आईना है,उसमें हम एक बार देख सकतें हैं,बार – बार अपनी खूबसूरती देखने की कोई ज़रूरत नहीं है,यदि हमें भरोसा है कि हम खुबसूरत हैं। अब तक तो यही कहते आ रहें हैं कि वक्त लगेगा पर सब कुछ ठीक हो जाएगा,कुछ ठीक नहीं होगा,जब तक हम ठीक नहीं होंगे,हमारा समाज ठीक नहीं होगा, हमारी मानसिकता ठीक नहीं होगी,तब तक क्या सब कुछ ठीक होने का इंतज़ार
करते रहें,अपनी कोई ताक़त नहीं लगाएँ, अपनी मानसिकता नहीं बदलें,अपना समाज नहीं बदलें।नहीं चाहेंगें ना,तब भी
बदलना पड़ेगा।
सोनी सिंह
बोकारो(झारखंड)