जरा सा रुके ! और सोंचे !
मालूम नहीं लोगों के
मन से कुंठा निकलती नहीं है !
माँ खुद गीले में रहकर,
बच्चे को सूखे में सुलाती है !
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पता नहीं ये समाज !
अपनों से फैला है !
खुद नापाक साफ़ बताकर,
कीचड़ दूसरों पर फेंकते है !
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गर है ये समाज! ये धर्म! माई-बाप!
धोकर अपनी गंदगी बाहर क्यों फैलाते है!
वहाँ भी तो प्रभु का वास है !
सार्वजनिक तौर से लोग आते-जाते है !