व्यथा उर्मिला की
जरा विचारों लक्ष्मण कैसे, काटा ये विरही जीवन
दरवाजे पर नज़र टिकाये, बैठी रही लिये बस तन
चले गये कुछ बिना कहे ही, क्या बीती होगी मुझ पर
हर पल केवल ये लगता था, चला गया कोई छल कर
निष्ठुर होकर तुमने अपना, भुला दिया सब अपनापन
जरा विचारो लक्ष्मण कैसे , काटा ये विरही जीवन
मात सुमित्रा -कौशल्या को, मैंने हर पल समझाया
लेकिन आँखों के आँसू को, रोक नहीं कोई पाया
देख तात दशरथ के दुख को, तड़प उठा था मेरा मन
जरा विचारो लक्ष्मण कैसे, काटा ये विरही जीवन
यही सोचती रही हमेशा, साथ मुझे भी ले जाते
कभी न कर्तव्यों के आगे, तुम मुझको बाधक पाते
छोड़ गये तुम बीच राह में, भूल गये क्यों सभी वचन
जरा विचारों लक्ष्मण कैसे , काटा ये विरही जीवन
तुम भाई की सेवा करते, सिया बहन की मैं करती
तुम खाने को फल ले आते, मैं नदिया से जल भरती
रह लेती काँटों में हँसकर , साथ तुम्हारे बन जोगन
जरा विचारो लक्ष्मण कैसे, काटा ये विरही जीवन
मैंने अपनी सुध बुध खोई, यादों में दिन रात बही
भूल गई पलकें झपकाना, सिर्फ जोहती बाट रही
पथराई आँखें ये ऐसे, कभी न बरसा फिर सावन
जरा विचारो कैसे लक्ष्मण , काटा ये विरही जीवन
आज सामने देख तुम्हें यूँ , होता है विश्वास नहीं
लगता है ये केवल सपना, जैसे तुम हो पास नहीं
दुख से मेरा गहरा नाता, खुशियाँ हैं मेरी दुश्मन
जरा विचारो लक्ष्मण कैसे, काटा ये विरही जीवन
24-12-2021
डॉ अर्चना गुप्ता
मुरादाबाद