जयघोष
पथ-पथ कांटे पड़े हुए हैं
नग्न पांव में जाऊंगा
होगा विलम्ब आने में शायद
किन्तु लौट मैं आऊंगा
था सुना, धरा मतवाली है ?
है गगन, मगन अपनी धुन में ?
मतवाली धरती से कह दो
कह दो मतवाले अम्बर से भी
कसें कमर अब होगा रणगर्जन
मृत्यु का भी अब होगा मर्दन
स्वयं काल का काल बनूंगा
अम्बर को भुजा में बांधूंगा
पकडूंगा धरती को कसके
कंदुक समान मैं खेलूंगा
बंधू अब कश्ती तैयार करो
सर्वप्रथम सागर को घूंटूंगा
पर्वत की चोटी से भी टकराऊंगा
कह दो जाकर तूफानों से
उन मृत्यु के मेहमानों से
अपना अपना अब कफ़न मंगा लें
अंतिम इच्छा को पूर्ण करें
अपनों को फिर से गले लगायें
मृत्युदंड दूंगा मृत्यु को
कालों के हैं जो काल मेरे महाकाल
चरणों में उनके लिपटूंगा और बिखर जाऊंगा
पुनः अकेले इस पथ से ही
मृत्यु को पछाड़ खिलखिलाता चला आऊंगा
होगा विलम्ब आने में शायद
किन्तु लौट मैं आऊंगा
• विवेक शाश्वत