जम जाती है धूल
******* जम जाती है धूल ******
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जब घर आंगन में जम जाती है धूल,
समझो घर वालों से होती बड़ी भूल।
कोई सज्जन पवनपुत्र बनकर आए,
साथ उड़ा ले जाती है हवा संग धूल।
रंगभेद नीति नियति से कोसों है दूर,
श्याम हो या श्वेत नही बख्शती धूल।
जो कोना खाली वहाँ बजाती ताली,
जहां न पहुंचे हाथ पहुंचे वहां धूल।
थकहार चूर हो श्रमिक और पथिक,
सेज बिछा कर सुकून दे जाती धूल।
युगल प्रेमी बैठ वहाँ बातें बतियाते,
मुफ्त आसन दे उन्हें खुश होती धूल।
जो दो पल अनदेखी की करता भूल,
बन अंधेरी उन आँखों में घुसती धूल।
रूप बदलती बन चंचल हिरनी सी,
पात शाख पर झट बिछती है धूल।
मनसीरत मन पटल पर चुभते शूल,
धूल में जन्मे जन धूल जाते हैं भूल।
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सुखविन्द्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)