*जमानत : आठ दोहे*
जमानत : आठ दोहे
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(1)
पैसेवाले तो गए , करने उच्च अपील
निर्धन सड़ता जेल में ,कैसे करे वकील
(2)
पैसेवालों की चली , आधी रात दलील
कलुआ अटका रह गया ,खूँटी पर ज्यों कील
(3)
बरसों सड़ता जेल में , हुआ विचाराधीन
न्याय उसे कैसे मिले ,जो निर्बल धनहीन
(4)
जिसे जमानत मिल गई ,खुशियों की सौगात
चले मुकदमा सौ बरस , चिंता की क्या बात
(5)
न्याय मिला कुछ को अगर ,समझो है बेकार
असरदार को मिल रहा ,पैसे की जयकार
(6)
बिना जमानत काटते ,जेलों में दिन-रात
पेशी पर पेशी पड़ी , हुई न्याय की मात
(7)
देरी से जो मिल रहा , देता जो संत्रास
न्याय नहीं यह न्याय का ,केवल है उपहास
(8)
कुछ मत पूछो न्याय की ,अंधा है कानून
मच्छर मारा फँस गया ,छूटा कर के खून
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संत्रास = अत्यंत भय ,आतंक
उपहास = मजाक
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रचयिता : रवि प्रकाश, बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451