जब वो कृष्णा मेरे मन की आवाज़ बन जाता है।
जिंदगी ने नये पंख दिए, पर उड़ने को मन कतराता है।
शिकारी के बिछे जाल से, दिल अब भी घबराता है।
कहीं घात में बैठा, वो आज भी इतराता है।
मेरे पंख जलाने को, वो आज भी अग्नि सुलगाता है।
सपनों में आकर, वो मुझे आज भी डराता है।
और स्मृतिओं को मेरी, ताज़ा कर जाता है।
उसकी दुनियाँ में मुझे सदैव कुचला जाता था।
लहू से मेरे, वो तिलक के गीत गाता था।
खुले घावों पे मेरे वो, नमक के मरहम लगाता था।
और चीख़ को मेरी, मेरे हीं गले में दबाता था।
अपनी श्रेष्ठता सिद्धि हेतू, वो हर क्षण मुझे गिराता था।
और सम्मान को मेरे, पैरों तले कुचल जाता था।
परंतु अब ये नीला आसमां मुझे आवाज़ लगाता है।
मेरी ऊँचाईयों को छुले, ये कहकर मुझे बुलाता है।
वो चाँद मुझे देखकर मंद मंद मुस्कुराता है।
और अपनी चाँदनी बिखेर, मेरे पंखों को सहलाता है।
वो कृष्णा मेरे मन की आवाज़ बन जाता है।
और पंखों पर मेरी, वो सुदर्शन की धार चढ़ाता है।