जब भी मैं लिखने जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूँ
मन सतरंगी हो जाता है
मधुमास में जब कोयलिया
बैठ अमवा की डाली पर
कुछ मीठे बोल सुनाती है
पपीहरा मैं बन जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूं……
वर्षा की सुहानी ऋतु में जब
घटा काली घिर आती है
मन के चित्र पटल पर भी
तस्वीरें कुछ उग आती हैं
तस्वीरों में जिंदा होकर
मैं भी मयूर बन जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूँ…..
आती है सर्दियों की रातें
कुछ सपने गजब दिखाती हैं
बरसों से सोए अरमानों को
फिर जिंदा कर जाती हैं
कलम उठाता हूं अंकन को तो
सपनों का पात्र बन जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूं……
गर्मियों की जलती दोपहरी में
जब सन्नाटा सा छा जाता है
मेरे सूने मन में भी कोई
अरमान जगा सा जाता है
मैं जग करके सोता हूं
सोते ही जग जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूं……
किसी सुबह जब ब्रह्म बेला में
मन कुछ एकाग्र हो जाता है
चिड़ियों की चह-चह से
अंतस प्रसन्न हो जाता है
दरवाजे पर दस्तक सुनकर
मैं लेने को दूध उठ जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूं …….
कभी शाम को दौड़-धूप कर
जब मैं घर को आता हूं
कुछ चाय पर, कुछ फोन पर
मित्रों को निपटाता हूं
चढ़ जाती है ‘उनकी’ त्यौरियां
फिर मैं सेवक बन जाता हूं
जब भी मैं लिखने जाता हूं……..
मन सतरंगी हो जाता है
स्वरचित- सूर्येन्दु मिश्र