जब देखोगे तुम मेरी ऊँचाई को
छूने दौड़ोगे मेरी परछाँई को
जब देखोगे तुम मेरी ऊँचाई को
मन को तो समझा लोगे माना मैने
पर कैसे समझाओगे अँगड़ाई को
घर की दीवारों ने भी महसूस किया
इक कमरे में पलती रही जुदाई को
मोबाइल की दुनिया में खोई-खोई
देखा मैने पागल सी तरुणाई को
खुशियों के दर पर जो हरदम पलते हैं
नाटक कह देते हैं पीर पराई को