जब तुम आओगे
जैसे धरा गगन को निहारे
प्रातः खग कलरव सुनाएं
खूब हिलोरें लेती गंगे
और जैसे वर्षा की फुहारे
ऐसे ही बहार ले आना तुम
जब तुम आओगे ——–
कीटों में तुम भ्रामरी बनकर
पुष्पों का आलिंगन करना
रसपान कर पराग का
मधु का तुम सृजन करना
ऐसे ही सुर छेड़ते हुए
मुझे भी राग यमन सुना जाना
जब तुम आओगे——–
घुमड़ घुमड़कर मेघ बनके
नील गगन में विचरण करके
मिले सुकून अंशुमानी ताप से
पावन धरा पर खूब बरसके
सबको अभीसिंचित करना तुम
जब तुम आओगे ——-
वसंत में नव पाती से तुम
रूठे वृक्षों को मना लेना
बनकर फ्योंली पहाड़ में मेरे
हृदय में उमंग भर देना
ज्यों महकाती प्रकृति को तुम
मुझे भी यूँ महका देना
जब तुम आओगे ———
नक्षत्र स्वाति रात्रि पूर्णिमा
अमृत की तरह तुम बरस जाना
मुझ विरही चातक प्राणी के
अवरुद्ध कण्ठ का तुम स्पर्श करना
नित शीश उठाकर चंद्र की तरफ
निर्निमेष प्रतीक्षा करूँगा मैं
जब तुम आओगे ———–
अपलक तुम्हें देखता रहूँगा
मौन होकर बहुत कुछ कहूँगा
अश्रुओं से चरणों का अभिषेक करूँगा
उच्छवास तक यही पूछता रहूँगा,
दो पक्ष, छः ऋतु, बारह माह बीत जाने के बाद
तुम क्यों नहीं आये..?
जब तुम आओगे…..?
©®_ अमित नैथानी ‘मिट्ठू’