जब तुमने सहर्ष स्वीकारा है!
शीर्षक – जब तुमनें सहर्ष स्वीकारा है!
विधा – कविता
परिचय – ज्ञानीचोर
शोधार्थी व कवि साहित्यकार
मु.पो. रघुनाथगढ़, सीकर,राज.
पिन – 332027
मो. 9001321438
जब तुमने सहर्ष स्वीकारा है
जो सिलसिले मौन थे
उसको जब तुमने तोड़ा है
क्या करूँ उन तमाम कविताओं का?
जिसमें तुमको खोजने की
कोशिश करता रहा वर्षभर
इतिहास के दस्तावेज बन गई।
कविता में उकेरना आसान था तुमकों
हृदय में छुपा लेना आसान था तुमकों
कविता में ढूँढ़ना आसान था तुमकों
और आसान था तुममें कविता ढूँढ़ना।
वो एक दौर था चला गया!
रोज तुम्हारे पैरों में लिपटकर
मेरी आँखें चलती थी तेरे साथ
सारे दृश्य अन्तर्धान हो जाते मेरे
जब तेरे चेहरे पर उभरती लकीरें
उदासी की, उस समय बेवकूफ था न।
आँसुओं की नमी जो
आँख में ही दबकर सूख जाती
उस समय मेरी नजरें खोज लेती
तुमकों अपने स्वरूप में
जो तू भूल जाती अपने को
तब मैं याद करके तुमको
लिख देता एक अधूरी कविता।
तेरे हाथ की लकीरें जो तुमने देखी
उसमें क्या था वो तुम नहीं जानती
न ज्योतिषी को पता था कि
पवित्र कर्म की रेखाएं हाथों में नहीं होती
पर बदल देती है प्रारब्ध का विधान।
जब तुमने सहर्ष स्वीकारा है
तब मैं जु़ड़ा तुमसे
सिर्फ यहीं सत्य नहीं है
सत्य ये है कि वो रास्तें खोले तुमने
जिससे प्रेम ही नहीं
सभी मानवीय भावों का
प्रत्यावर्तन होता है बार-बार
और आदमी जुड़ जाता है
प्रकृति के चर-अचर से
सीधा विराट सत्ता से जुड़ जाता है।
मेरी हर आखिरी कोशिश खोजने की
कविता में आकर सिमट जाती तुम्हारी
जब तुमने सहर्ष स्वीकारा है
तो मैं बता दूँ मेरी कविता
अब कविता नहीं रहीं
जीवन के वो दस्तावेज है
जिसमें एक युग की दास्तान है
शोधक आलोचक खोजेंगे
हमारा इतिहास कभी
तब ये कविता ही बतायेगी
तुम कैसी थी और मैं कैसा
जैसा जन्म कुडंली नहीं बताती
उसे कविता कुंडली में खोजना
आलोचको तुम धन्य होओगे
जब पढ़ोगों मेरा लिखा शब्द
और खोजोगे जब तुम
मेरे शब्दों में तथ्य नये
तब के लिए मैं अभी बता देता हूँ
वो रूप जाल में सिमटकर
चुनौती दे रही है प्रारब्ध को।
ये उसी की प्रार्थनाएं है
जो कविता में छुपी है
मैं फिर से जिंदा हूँ
लू के थपेड़ों में जला वृक्ष हूँ
पर सावन मेघ-सी उसकी
प्रेम-फुहारों में फिर
नई कोंपलें निकाल चुका हूँ क्योंकि
जब तुमने सहर्ष स्वीकारा है।