जन-गण-मन
जन-गण-मन अधिनायक जय हे !
भारत भाग्य विधाता ‘
संसद के ऊपर लहराए तिरंगा,
पूछ रहा ये कौन मेरा भाग्य विधाता ?
‘ विजयी विश्व तिरंगा प्यारा ‘
कौन बचा है अब जो मेरा ,
ऐसा राग हो गाता।
ओ संसद के अंधे लुटेरों,
बता दो कौन है ये भाग्य विधाता ?
उन्मुक्त गगन में लहराता भी ,
डर के मारे सोच रहा हूँँ,
किसने रोकी राहें,
मैं विश्व विजय कर लहराया हूँँ।
जन-जन के मन में रमता ,
फिर ! किस अधिनायक को राष्ट्रगान ,
राष्ट्रगान में पुकारते ?
मैं आर्यद्वीप के मस्तक का तिलक हूँँ।
तिलक के त्रिलोक है मुझमें बसते ।
समस्त विश्व और चराचर ,
सब मेरे अनुगामी है ।
गांधी बैठे नोटों पर,
सब के अंगुली की चोटों पर ,
थूक लगाकर ‘स्वच्छ भारत’ पर ।
उनके अवदानों को याद करो ।
बस ! रट लगाओ, न काम करो ।
फहरा कर लाल किले पर ,
बोले हम आजाद हुए ।
एक देश और एक तिरंगा ।
बलिदानी और वीर शहीदों पर,
कफन बनकर आंचल फैलाऊँ।
जंग लड़ो तो मैं आगे आऊँ।
हिंदू मुस्लिम सिख को मैं मिलाऊँ।
फिर क्यों ! उपेक्षा कर बनाया मुझको,
जन गण मन का अधिनायक नहीं।
क्या मैं इसके भी लायक नहीं !
हे संसद के आदमखोर !
मचाते क्यों हो इतना शोर ,
क्या घुस गया छिपकर कोई चोर,
चोर घुसा होगा तो भी,
क्या तुमको नजर आएगा ।
अंधे हाथ भैंस बिकानी,
गुड़-गोबर तुम कर दो एक।
बचे रहेंगे मेरे फिर भी सवाल अनेक ।
खोजो ! उस अधिनायक को ,
है शौर्य पराक्रम सैनिक वीर जवानों सा
तो लाओ मुझे सौंप दो।
मैं दफनाऊँ कश्मीरी वादी में ,
या बहा दूँ हिंद महासागर में।
होगी जय तेरी,हे संसद ! के वीर तभी,
मैं बनूंगा अधिनायक तभी
ज्ञानीचोर
9001321438