[पुनर्जन्म एक ध्रुव सत्य] अध्याय 6
जन्मांतर प्रगति या पतन के आधार— आत्म-सत्ता के संकल्प
महर्षि वशिष्ठ राम को पुनर्जन्म प्रकरण पढ़ा रहे थे। उस समय की बात है जब एक प्रसंग में उन्होंने राम को बताया—
आशापाश शताबद्धा वासनाभाव धारिणः। कायात्कायमुपायान्ति वृक्षाद्वृक्षमिंवाण्डजा।।
“हे राम! मनुष्य का मन सैकड़ों आशाओं (महत्वाकांक्षाओं) और वासनाओं के बन्धन में बंधा हुआ मृत्यु के उपरान्त उस क्षुद्र वासनाओं की पूर्ति वाली योनियों और शरीरों में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार एक पक्षी एक वृक्ष को छोड़कर फल की आशा से दूसरे वृक्ष पर जा बैठता है।”
मनुष्य जैसा विचारशील प्राणी इतर योनियों—मक्खी, मच्छर, मेढक, मछली, सांप, बैल, भैंस, मगर, नेवला, शेर, बाघ, चीता, भेड़िया, कौवा, आदि योनियों में किस प्रकार चला जाता होगा। यह बात राम की समझ में नहीं आई। उन्होंने अपनी शंका महर्षि के समक्ष प्रकट की और कहा—भगवन्! मनुष्य जैसा समझदार व्यक्ति भला दूसरी योनियां क्यों पसन्द करेगा? इस पर महर्षि ने राम को जिस ढंग से जीवात्मा द्वारा अन्य शरीर धारण करने की अवस्था और मनोविज्ञान समझाया है; वह वस्तुतः हर विचारशील व्यक्ति के लिये मनन करने की अत्यन्त महत्वपूर्ण वस्तु है—वशिष्ठ ने राम को वह तत्वज्ञान जिन शब्दों में दिया, योग-वशिष्ठ में उन्हें तीसरे अध्याय के 55 सूत्र में 39, 40, 41 और 42 श्लोकों में इस प्रकार बताया है—
हे राम! वीर्य रूप में जीवात्मा ही स्त्री की योनि में आता है और गर्भ में पककर एक बालक का रूप धारण करता है। (यहां शास्त्रकार का वह कथन भी प्रामाणिक है जिसमें आत्मा को अणोऽरणीयान—अर्थात् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म कहा गया है। पुरुष शरीर का वीर्य कोष (स्पर्म) अत्यन्त सूक्ष्म अणु होता है यह विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है) और अपने पूर्व जन्मों के संस्कारों के अनुरूप अच्छा या बुरा शरीर प्राप्त करता है (उल्लेखनीय है कि उसी कोष में ही जीव की शारीरिक रचना के सारे गुण सूत्र (क्रोमोसोम) रहते हैं। यह भी विज्ञान सिद्ध कर चुका है)। बालक धीरे-धीरे बढ़ने लगता है और इस प्रकार वह युवावस्था में पदार्पण करता है। पकी हुई इन्द्रियां अपना सुख मांगता है। कुछ पूरी होती हैं अधिकांश अधूरी। अधूरी रह गई वासनायें, महत्वाकांक्षायें वह मनुष्य अपने मन में भीतर ही भीतर दबाता रहता है। एकबार उठी वासना जब तक पूर्ण नहीं हो जाती, नष्ट नहीं होती; वरन् वह भीतर ही भीतर और भी बलवती होती रहती है। [फ्रायड ने स्वप्न प्रकरण में स्वीकार किया है कि मनुष्य की दमित वासनायें ही स्वप्न में उसी तरह के काल्पनिक चित्र तैयार करती हैं और मनुष्य अद्भुत तथा अटपटे स्वप्न देखता है] वासनाओं के दमन से शरीर के पंच भौतिक पदार्थों पर दबाव पड़ता है और वे क्रमशः कमजोर होते चले जाते हैं, जिससे वृद्धावस्था आ जाती है और मनुष्य का शरीर मर जाता है; पर मन अपनी वासना के अनुसार एक दूसरे जगत में प्रवेश कर जाता है। [गीता में भगवान् कृष्ण ने शरीरों को क्षेत्र या जगत कहा है। महर्षि वशिष्ठ ने यह जो दूसरे जगत में जाने की बात कही उसका तात्पर्य दूसरी योनि के शरीर से ही है। शरीर और भौतिक प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है, यह विज्ञान भी मानता है कि अब तक ढूंढ़े गये 108 तत्व ही विभिन्न क्रमों में सजकर विभिन्न प्रकार के कोश और शरीरों की रचना करते हैं।] इस प्रकार अपने मन की वासना के अनुरूप जीवन तब तक अनेक शरीरों में भ्रमण करता रहता है जब तक उसी वासनायें पूर्ण शान्त नहीं हो जातीं और वह फिर से शुद्ध आत्मा की स्थिति में नहीं आ जाता।
चक्कर चौरासी लाख योनियों का
मोटेतौर से जीवात्मा के योनि-परिभ्रमण का अर्थ यह समझा जाता है कि वह छोटे-बड़े कृमि-कीटकों, पशु-पक्षियों की चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के उपरान्त मनुष्य जन्म पाता है। पुनर्जन्म की घटनाओं से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य को दूसरा जन्म मनुष्य में ही मिलता है। इसके पीछे तर्क भी है। जीव की चेतना का इतना अधिक विकास, विस्तार हो चुका होता है कि उतने फैलाव को निम्न प्राणियों के मस्तिष्क में समेटा नहीं जा सकता। बड़ी आयु का मनुष्य अपने बचपन के कपड़े पहन कर गुजारा नहीं कर सकता। यही बात मनुष्य योनि में जन्मने के उपरान्त पुनः छोटी योनियों में वापिस लौटने के सम्बन्ध में लागू होती है। यह हो सकता है कि जीवन-क्रमिक विकास करते हुए मनुष्य स्तर तक पहुंचा हो। इसका प्रतिपादन तो डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त में भी हो सकता है; पर एकबार मनुष्य जन्म लेने के बाद पीछे लौटने की बात तर्क संगत नहीं है। कर्मों का फल भुगतने की बात हो तो दुष्कर्मों की दण्ड जितना अधिक मनुष्य जन्म में मिल सकता है, उतना पिछड़ी योनियों में नहीं। मनुष्य को शारीरिक कष्ट से भी अधिक मानसिक प्रताड़नाएं झेलनी पड़ती हैं। शोक, चिन्ता, भय, अपमान, घाटा, विछोह आदि से मनुष्य तिलमिला उठता है, जबकि अन्य प्राणियों को मात्र शारीरिक कष्ट ही होते हैं। मस्तिष्क अविकसित रहने के कारण उनमें भी उतनी तीव्र पीड़ा नहीं होती जितनी मनुष्यों को होती है। ऐसी दशा में पाप कर्मों का दण्ड भुगतने के लिए निम्नगामी योनियों में मनुष्य को जाना पड़े यह आवश्यक नहीं।
यह सही है कि सामान्यतया मनुष्य का जन्म मनुष्य योनि में होता है। उसकी बौद्धिक चेतना इतनी विकसित हो चुकी होती है कि किसी अविकसित मस्तिष्क वाले म्यान में उसे ठूंसा नहीं जा सकता। बड़ी उम्र के व्यक्ति को छोटे बच्चे के कपड़े नहीं पहनाये जा सकते। इसलिए मनुष्य का अगला जन्म मनुष्य में ही होने की मान्यता अधिक तथ्यपूर्ण है। बुरे-भले कर्मों का फल तो मनुष्य शरीर में भी मिल सकता है, मिलता भी है।
किन्तु इस नियम के अपवाद पाये गये हैं। मनुष्य का अन्य शरीर में प्रवेश अथवा जन्म जो कुछ भी कहा जाय उसके उदाहरण भी देखने को मिलते हैं। पशुओं के शरीर तथा मन में ऐसी विशेषताएं पाई गई हैं जो उनमें आश्चर्यजनक मात्रा में मानवी भावना एवं प्रकृति होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।
पश्चिम बंगाल के वर्दवान जिले में चांदमारी कोलोनी आसन सोल निवासी अध्यापक श्री रामनरायण सिंह की गाय ने 30 अक्टूबर 69 को एक बछड़े को जन्म दिया। बंगाली नस्ल की काली गाय ने बछड़ा भी काला ही दिया। इस बछड़े की प्रकृति में मनुष्य जैसी मनोवृत्ति और आदतें देखने को मिलीं। इसकी विलक्षण प्रकृति को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते थे और अनुभव करते थे कि यह पूर्व जन्म का कोई भावुक मनुष्य ही रहा होगा।
बछड़ा आदमी की गोद में बच्चे की तरह सोने का प्रयत्न करता था। जब कोई प्यार से उसे सुला लेता तो आनन्द विभोर होकर ऐसी मुद्रा में चला जाता, मानो होश-हवास खोकर गहरी निद्रा में चला गया। जब कभी अपने मालिक की गोद में किसी बच्चे को बैठा देख लेता तो उसे उतार कर ही छोड़ता और उस जगह पर खुद जा बैठता। यों खाता तो घास भी था, पर जब थाली में मनुष्य का भोजन दिया जाता तो खाने की तरतीब और सलीका देखते ही बनता। चाय का पूरा शौकीन—वह गर्म कितनी ही क्यों न हो देखते-देखते प्याला साफ कर देता। पास बैठे मनुष्य को हलका धक्का देकर यह इशारा करता कि उसे घास या रोटी हाथ से खिलाई जाय। बिना दाल-साग के रूखी रोटी देने पर उसे खाता नहीं और नाराजगी जाहिर करता। गृह स्वामिनी उसके प्रति आवेश प्रकट करती तो घर के एक कोने में सट कर जा बैठता और आंसू बहाने लगता। यों प्रसाद में तुलसी के पत्ते वह प्रसन्नतापूर्वक खाता किन्तु आंगन में लगे तुलसी के गमले पर उसने कभी मुंह नहीं डाला। पूजा के समय शान्तिपूर्वक आकर बैठ जाता। रस्सी से बंधा होता तो उसे तुड़ाने का प्रयत्न करता और पूजा के समय देवस्थान तक पहुंचने का प्रयत्न करता।
सामान्यतः सृष्टि का विज्ञान सम्मत नियम यह है कि कोई भी जीवन अपने माता-पिता के गुण सूत्रों (क्रोमोसोम) से प्रभावित होता है। शरीर के आकार-प्रकार से लेकर आहार-विहार और रहन-सहन की सारी क्रियाएं मनुष्य ही नहीं जीव-जन्तुओं में भी पैतृक होती हैं। इस नियम में थोड़ा बहुत अन्तर तो उपेक्षणीय हो सकता है, पर असाधारण अपवाद उपेक्षणीय नहीं हो सकते जो संस्कार सैकड़ों पीढ़ी पूर्व में भी सम्भव न हों, ऐसे संस्कार और जीव-जन्तुओं के विलक्षण कारनामे भारतीय दर्शन के पुनर्जन्म और जीव द्वारा कर्मवश चौरासी लाख योनियों में भ्रमण के सिद्धान्त को ही पुष्ट करते हैं।
जोहानीज वर्ग (अफ्रीका) का एक गड़रिया बकरियां चरा कर लौट रहा था। उसने एक झाड़ी के पास खों-खों कर रही बबून बन्दरिया देखी। लगता था वह बच्चा अपने मां-बाप से बिछड़ गया है। गड़रिया उसे अपने साथ ले आया और जोहानीज वर्ग के एक औद्योगिक फार्म के मालिक को उपहार में दे दिया।
अफ्रीका की जिस बबून बन्दरिया की घटना प्रस्तुत की जा रही है उसमें असाधारण मानवीय गुणों का उभार उस औद्योगिक फार्म में पहुंचते ही उसकी आयु के विकास के साथ प्रारम्भ हो गया। उसे किसी से कोई प्रशिक्षण नहीं मिला, फिर उसमें उस विलक्षण प्रतिभा का जागरण कहां से हुआ जिसके कारण वह इस परिवार की अन्तरंग सदस्या बन गई? आज के विचारशील मनुष्य के सामने यह एक जटिल और सुलझाने के लिए बहुत आवश्यक प्रश्न है।
बन्दरिया का नाम आहला रखा गया। फार्म-मालिक एस्टन को पशुओं से बड़ा लगाव है उनकी उपयोगिता समझने के कारण ही उन्होंने फार्म के भीतर ही एक पशुशाला भी स्थापित की है। उसमें गाये, बछड़े, बछड़ियां, कुत्ते, बकरियां आदि दूध देने वाले पशु भी पाले हैं, उनसे उनकी अच्छी आय भी होती है बचे समय का उपयोग का साधन भी। पशुओं को चराने और उनकी देख-रेख के लिए एक नौकर रखा गया था। यह बन्दरिया भी उसे ही देख-रेख के लिये दे दी गई।
नौकर उसे साथ लेकर गौ-चारण के लिए जाता था धीरे-धीरे उसको अभ्यास हो गया। एक दिन किसी कारण से नौकर अपने गांव चला गया। उस दिन बिना किसी से कुछ कहे ठीक समय पर बन्दरिया भेड़-बकरियों को बाड़े के बाहर निकाल ले गई और दोनों कुत्तों की सहायता से उन्हें दिन भर चराती रही। उसने चरवाहे का नहीं कुशल चरवाहे का काम किया। भटके हुये मेमनों को उनके माता-पिता तक बगल में दबाकर पहुंचाकर, जिनके पेट आधे भरे रह गये उन्हें हरी घास वाले भूभाग की ओर घेर कर पहुंचा कर उसने अपनी कुशलता का परिचय दिया। शाम को कुछ ऐसा हुआ कि बकरी का एक बच्चा तो जाकर स्तनों में लगकर दूध पीने लगा, दूसरा कहीं खेल रहा था। आहला ने देखा कि वह अकेला ही सारा दूध चट किये दे रहा है उसने उसे पकड़ कर वहां से अलग किया। दूसरे बच्चे को भी लाई, तब फिर दोनों को एक-एक स्तन से लगाकर दूध पिलाया। मालिक यह देखकर बड़ा खुश हुआ। उसने चरवाहे को दूसरा काम दे दिया, तब से आहला लगातार 16 वर्ष तक चरवाहे का काम करती आ रही है। इस अवधि में उसने पशुओं की सुरक्षा, स्वास्थ्य रख-रखाव में ऐसे परिवर्तन और नये प्रबन्ध किये हैं जिन्हें देखकर लगता है मानों वह पूर्व जन्म में कोई गड़रिया रही हो और उसने भेड़ बकरियां चराने से लेकर उनकी व्यवस्था तक का सारा काम स्वयं किया हो।
वह शिकारी, जन्तुओं से मेमनों की रक्षा करती है। शाम को हर एक पशु की गणना करती है। कोई पशु बिछुड़ गया हो, कोई मेमना कहीं पीछे रह गया हो तो वह स्वयं जाकर उसे ढूंढ़ कर लाती है। फुरसत के समय उनके शरीर के जुयें मारने से लेकर छोटे-छोटे मेमनों के साथ क्रीड़ा करने की सारी देख-रेख आहला स्वयं करती है। उसे देखकर जोहानीज वर्ग के बड़े-बड़े वकील और डॉक्टर भी कहते हैं—इस बंदरिया के शरीर में यह कोई मनुष्य आत्मा है। कदाचित् उन्हें पता होता कि जीवनी शक्ति के रूप में आत्मा एक है, दो नहीं, वह शक्ति इच्छा रूप में इधर-उधर विचरण करती और कभी मनुष्य तो कभी पशु-पक्षी और अन्य जीव के रूप में जन्म लेती रहती है।
योग वशिष्ठ में इस तथ्य को बड़ी सरलता से प्रतिपादित किया गया है। लिखा है—
ऐहिकं प्राक्तनं वापि कर्म यद्चितं स्फुरत् । पौरषौडसो परो यत्नो न कदाचन निष्फलः ।। —3।95।34
अर्थात् पूर्व जन्म और इस जन्म में किये हुए कर्म, फल—रूप में अवश्य प्रकट होते हैं मनुष्य का किया हुआ यत्न, फल लाये बिना नहीं रहता है। कर्म की प्रेरणा, मन की इच्छा और आवेगों से होती है इसलिए इच्छाओं को ही कर्मफल का रूप देते हुए शास्त्रकार ने आगे लिखा है— कर्म बीजं मनः स्पन्दः कथ्यतेऽथानुभूयते ।क्रियास्तु विविधास्तस्य शाखाश्चित्र फलास्तरोः । —योग वशिष्ठ 3।96।11
अर्थात्—मन का स्पन्दन ही कर्मों का बीज है, कर्म और अनुभव में भी यही आता है। विविध क्रियायें ही तरह-तरह के फल लाती हैं। नये शरीर में आने के पश्चात् अपने पूर्व अनुभवों का विवरण लिखते हुये एक जागृत आत्मा की अनुभूति का वर्णन वेद में इस प्रकार आता है— पुनर्मनः पुनरायुर्म आगन्पुनः प्राणः पुनरात्मा म आगन् पुनश्चक्षुः पुनः क्षोत्रं म आगन् । वैश्वानरो- ऽदब्ध स्तनूपा अग्निर्नः पातुः दुरितादवधात् ।। —यजुर्वेद 4।15
अर्थात्—शरीर में जो प्राण शक्ति (आग्नेय परमाणुओं के रूप में काम कर रही थी मैंने जाना नहीं कि मरे संस्कार उसमें किस प्रकार अंकित होते रहे। मृत्यु के समय मेरी पूर्व जन्म की इच्छायें, सोने के समय मन आदि सब इन्द्रियों के विलीन हो जाने की तरह प्राण में विलीन हो गई थीं वह मेरे प्राणों का (इस दूसरे शरीर में) पुनर्जागरण होने पर ऐसे जागृत हो गये हैं जैसे सोने के बाद जागने पर मनुष्य सोने के पहले के संकल्प विकल्प के आधार पर काम प्रारम्भ कर देता है। अब मैं पुनः आंख, कान-आदि इन्द्रियों को प्राप्त कर जागृत हुआ हूं और अपने पूर्वकृत कर्मों का फल भुगतने को बाध्य हुआ हूं।
इस कथन से आधुनिक विज्ञान का ‘‘जीन्स-सिद्धान्त’’ पूरी तरह मेल खाता है। कोश के आग्नेय या प्रकाश भाग को ही प्राण कह सकते हैं पैतृक या पूर्व जन्मों के संस्कार इन्हीं में होते हैं यदि प्राणों की सत्ता को शरीर से अलग रख कर उसके अध्ययन की क्षमता विज्ञान ने प्राप्त कर ली तो पुनर्जन्म और विभिन्न योनियों में भ्रमण का रहस्य भी वैज्ञानिक आसानी से जान लेंगे।
तथापि तब तक यह उदाहरण भी परिकल्पना की पुष्टि में कम सहायक नहीं। आहला बंदरिया उसका एक उदाहरण है। बन्दरों में मनुष्य से मिलती जुलती बौद्धिक क्षमता तो होती है पर यह कुशलता और सूक्ष्म विवेचन की क्षमता उनमें नहीं होती यह संस्कार पूर्व जन्मों के ही हो सकते हैं। आहला की यह घटना दैनिक हिन्दुस्तान और दुनिया के अन्य प्रमुख अखबारों में भी छप चुकी है। दिलचस्प बात तो यह है कि आहला एक बार कुछ दिन के लिये कहीं गायब हो गई। फिर अपने आप आ गई। इसके कुछ दिन पीछे उसके बच्चा हुआ। बच्चे के प्रति उसका मोह असाधारण मानवीय जैसा था। दैवयोग से बच्चा मर गया पर आहला तब तक उसे छाती से लगाये रही जब तक वह सूख कर अपने आप ही टुकड़े-टुकड़े नहीं हो गया। कुछ दिनों पूर्व पुनः गर्भवती हुई और उसकी खोई हुई प्रसन्नता फिर से वापस लौट आई। बंदरिया ही क्यों अपने असाधारण कारनामों के लिए कैरेकस का एक तोता पिछले वर्ष ही विश्व विख्यात हो चुका है। इस तोते के बारे में लोगों का कहना है कि उसमें किसी कम्युनिस्ट नेता के गुण विद्यमान हैं। तोते को तोड़-फोड़ की कार्यवाही में सहयोग देने के अपराध में कैरेकस से 287 मील दूर फाल्कन राज्य के सैन फ्रान्सिस्को स्थान पर बन्दी बनाया गया।
यह तोता क्यूबा के ‘‘फिडल कास्ट्रो’’ विचारधारा के साम्यवादी गुरिल्लों को ‘‘हुर्रा’’ कह कर उत्साहित किया करता और उन्हें क्यूबाई भाषा से मिलते-जुलते उच्चारण और ध्वनि में मार्गदर्शन किया करता, गुरिल्ले उसके संकेत बहुत स्पष्ट समझने लगे थे उन्हें इस तोते से बड़ी मदद मिलती थी। उन्होंने इसका नाम ‘‘चुचो’’ रखा था। अब इस तोते की जीभ साफ की जा रही है और उसे नई विचारधारा में ढालने का प्रयास किया जा रहा है, किन्तु उसके संस्कारों में साम्यवाद की जड़ें इतनी गहरी जम गई हैं मानो उसने साम्यवाद साहित्य का वर्षों अध्ययन और मनन किया हो। तोते की यह असाधारण क्षमता इस बात का संकेत है कि अच्छे या बुरे कोई भी कर्म अपने सूक्ष्म संस्कारों के रूप में जीव का कभी भी पीछा नहीं छोड़ते चाहे वह बन्दर हो या तोता।
यह दो उदाहरण व्यक्तिगत हैं, एक और उदाहरण ऐसा है। जो यह बताता है कि व्यक्ति ही नहीं यदि सामाजिक परम्परायें विकृत हो जायें और किसी समाज के अधिकांश लोग एक से विचार के अभ्यस्त हो जायें तो उन्हें उन कर्मों का फल सामूहिक रूप से भोगना पड़ता है। सन् 1910 के लगभग की बात है दक्षिण पश्चिमी अमरीका सामाजिक अपराधों का गढ़ हो चुका था। मांसाहारी होने के कारण वहां के लोग उग्र स्वभाव के तो होते ही हैं। हत्या, डकैतियों की संख्या दिनों दिन बढ़ रही थी। ऐसे कई कुख्यात अपराधी मर भी चुके थे। उन्हीं दिनों वहां पाई जाने वाली भेड़ियों की ‘‘लोबो’’ जाति में कई ऐसे खूंखार भेड़िये पैदा हुये जिनके आगे लोग हत्या और लूट-पाट करने वालों का भी भय भूल गये।
कोलोरेडो का एक भेड़िया इतना दुष्ट निकला कि उसने अपने थोड़े से ही जीवन काल में इतने पशु-मारे कि उनकी क्षति का यथार्थ अनुमान लगाने के लिये सरकारी सर्वेक्षण किया गया और पाया गया कि इस एक भेड़िये ने 100000 डालर के मूल्य के पशुओं को केवल शौक-शौक में मार डाला। इसे लोग ‘‘कोलोरेडो का कसाई’’ कहते थे और उसके असाधारण बुद्धि कौशल को देखकर मानते थे ऐसी चतुरता तो मनुष्य में ही हो सकती है। प्रश्न यह है कि कोई खूंखार मनुष्य ही था जिसने कर्मफल या पूर्व जन्मों के संस्कारों के कारण भेड़िये के रूप में जन्म लिया।
1915 में ऐसे कई भेड़ियों का आतंक छा गया और तब सरकार को उन्हें मरवाने के लिए काफी धन भी खर्च करना पड़ा। ‘‘जैक द रिपर’’ भेड़िये को सरकार ने इनाम देकर मरवाया। एक तीन टांग का भेड़िया, जिसने केवल अपना शौक अदा करने के लिए लगभग एक हजार पशुओं का वध किया, वह भी ऐसे ही मारा गया। इसकी बुद्धि बताते हैं मनुष्यों से कम नहीं थी। धोखा देने संगठित रूप से आक्रमण करने, चकमा देने में वह आश्चर्यजनक चतुरता बरतता। एक बार टेडी रूजबेल्ट नामक एक व्यक्ति ने अपने नौ शिकारी कुत्तों के साथ इस कसाई का पीछा किया। भेड़िया भागता ही गया रुका नहीं, रात होने को आई कुत्ते रोक लिये गये। बस भेड़िया भी वहीं रुक गया। रात को कैम्प लगाकर टेडी रुक गया और उस कैम्प में घुस कर एक-एक करके भेड़िये ने नोओं कुत्तों को मार दिया और किसी को पता भी नहीं चल सका।
बंदरिया से लेकर तोते और भेड़िये तक के यह असाधारण संस्कार यह बात सोचने के लिए विवश करते हैं कि सचमुच ही कर्म-फल जैसी कोई ईश्वरीय व्यवस्था भी है जो इच्छा शक्ति (जीव) को सैकड़ों योनियों में भ्रमण कराती, घुमाती रहती है।
अज-रहस्य बकरा दौड़ा हुआ आया और आढ़त की दुकान में घुस कर भीतर लगी अन्न की ढेरी चबाने लगा। आढ़त का मालिक एक स्वस्थ नवयुवक, जो अभी पानी पीने कुएं पर चला गया था दौड़ा-दौड़ा आया और बकरे की पीठ पर डंडे का ऐसा भयंकर प्रहार किया कि बकरा औंधे मुंह जमीन पर गिर पड़ा। दम निकलते निकलने बचा। मिमियाता हुआ वहां से बाहर भाग गया।
आद्यशंकराचार्य एक स्थान पर बैठे यह दृश्य देख रहे थे उन्हें ऐसा देखकर हंसी आ गई, फिर वे एकाएक गम्भीर हो गये। शिष्य श्रेष्ठि पुत्र ने प्रश्न किया—भगवन्! बकरे पर प्रहार होते देख कर आपको एकाएक हंसी कैसे आ गई और अब आप इतने गम्भीर क्यों हो गये।
दिव्य दृष्टा आद्य शंकराचार्य ने बतलाया—वत्स! यह बकरा जो आज डण्डे की चोट खा रहा है कभी उसी आढ़त का स्वामी था। यह नवयुवक कभी इसका पुत्र था, इस बेचारे ने अपने पुत्र की सुख-सुविधाओं के लिए झूठ बोला, मिलावट की, शोषण किया वही पुत्र आज उसे मार रहा है—जीव की इस अज्ञानता पर हंसी आ गई, पर सोचता हूं कि मनुष्य मोह-माया के बन्धनों में किस प्रकार जकड़ गया है कि कर्मफल भोगते हुए भी कुछ समझ नहीं पाता दुकान में बार-बार घुसने की तरह नश्वरता पर क्षणिक सुख भोगों पर विश्वास करता है और इस तरह दैहिक, दैविक एवं भौतिक कष्टों में पड़ा दुःख भुगतता रहता है।
अज-रहस्य की यह कथा अब पुरानी पड़ गई। किन्तु क्या वस्तुस्थिति भी पुरानी पड़ गई? आद्य शंकराचार्य ने श्रेष्ठि पुत्र को जो ज्ञान दिया था, पुनर्जन्म, कर्मफल, आसक्ति, माया और सांसारिक कष्ट भुगतने के वह सिद्धान्त क्या पुराने पड़ गये हैं? क्या अब वैसी घटनायें नहीं घटती? सब कुछ होता है केवल समझ और शैली भर बदली है। अन्यथा आज भी ऐसी सैकड़ों मार्मिक घटनायें घटती रहती हैं। हम उनका अर्थ जान पाये तो देखें कि वस्तुतः माया-मोह के बन्धनों में पड़ा जीव कितनी निकृष्ट योनियों में पड़ता और कष्ट भुगतता है।
फ्रेडरिक डब्ल्यू. श्लूटर. नामक एक जर्मनी अमरीका आकर बस गया। उसकी एक दादी थी जिसका नाम था कैथेरिना सोफिया विट वह फ्रेडरिक से पूर्व ही 1871 में ही अमरीका आकर बस गईं थीं। यहीं इंडियाना राज्य के बुडबर्न नामक ग्राम में उन्होंने एक कृषक के साथ दुबारा विवाह कर लिया था। सोफिया बिट के पति का एक बंगला यहां से चार-पांच मील दूर खेतों में बना हुआ था। उसके पति प्रायः वहीं रहते थे। फ्रेडरिक किसी दूसरे शहर में नौकरी करता था किन्तु वह मन बहलाने के लिए कभी-कभी अपनी दादी के पास आ जाया करता था। वह अपना अधिकांश समय इस बंगले पर ही बिताया करता था।
जून सन् 1925 की बात है जबकि फ्रेडरिक यहां छुट्टियां बिताने आया हुआ था। एक दिन उसे शिकार करने की सूझी। बन्दूक लेकर बाहर निकला और कोई पक्षी या जीव-जन्तु तो उसे नहीं दीखा। हां, सामने ही एक चीड़ का वृक्ष था उसकी चोटी पर बने एक कोटर में एक वृद्ध कौवा बैठा हुआ था। फ्रेडरिक ने कौवे पर ही निशाना साथ लिया पर अभी गोली छूटने ही वाली थी कि कौवे की दृष्टि उस पर पड़ गई सो वह बुरी तरह कांव-कांव करने और पंख फड़फड़ाने लगा।
उसकी आवाज सुनते ही फ्रेडरिक का चाचा (सोफिया का पति) दौड़ता हुआ आया और फ्रेडरिक की बन्दूक नीचे करता हुआ बोला—यह क्या करते हो भाई—यह तुम्हारी दादी का पालतू कौवा है। इसे फिर कभी मत मारना।
कौवे की मैत्री एक विलक्षण बात है, पर यह एक अद्भुत सत्य कथा है। कौवा यद्यपि अधिकांश समय इस वृक्ष पर ही बिताता था पर कोई नहीं जानता रहस्य क्या था कि वह जब तक दिन में चार-छह बार सोफिया से नहीं मिल लेता था तब तक उसे चैन ही नहीं पड़ता था। कौवे में इतना विश्वास शायद ही कहीं देखा गया हो, शायद ही किसी और से कौवे की इतनी गहरी दोस्ती जुड़ी हो।
सोफिया की आयु इस समय कोई 85 वर्ष की थी। फ्रेडरिक खेतों से लौटकर घर आया अपनी दादी के पास बैठकर बातें करने लगा। तभी उसने खिड़की की तरफ फड़ फड़ की आवाज सुनी उसने सिर पीछे घुमाया वही कौवा था जिसे उसने अभी थोड़ी ही देर पहले मारते छोड़ा था। कौवा एक बार तो चौंका पर जैसे ही सोफिया ने उसे पुचकारा कि दरवाजे से होकर कौवा भीतर आ गया और सोफिया की गोद में अनजान-अबोध बालक की भांति लोटने लगा। कौवा निपट वृद्ध हो गया था उसकी एक टांग टूट गई थी। एक आंख भी जाती रही थी, पंख कुछ थे कुछ झड़ गये थे। सोफिया ने कहा—फ्रेडरिक, नहीं जानती किस जन्म का आकर्षण है जो कौवे को मेरे पास आये बिना न इसे चैन और न मुझे।
इस घटना के कोई 2 वर्ष पीछे की बात है। फ्रेडरिक तब मिलिटरी में भरती हो गया था और अब वेस्ट पाइन्ट की इंजीनियर्स वैरक में रह रहा था। यह स्थान ब्रुडबर्मन जहां उसकी दादी रहती थी—से कोई 500 मील दूर थी। एक रात जब फ्रेडरिक सो रहा था तब खिड़की पर कुछ फड़फड़ाने की आवाज सुनाई दी—होगा कुछ ऐसी उपेक्षा करके वह फिर सो गया, उसे क्या पता था कि जीवन के अनेक ऐसे क्षण मनुष्य को बार-बार किसी गूढ़तम जीवन रहस्य की प्रेरणा देते रहते हैं, पर हमारी उदासीनता ही होती है जो आये हुए वह क्षण भी निरर्थक चले जाते हैं और हम जीवन को सूक्ष्म विधाओं से अपरिचित के अपरिचित ही बने रह जाते हैं।
फ्रेडरिक जब सवेरे उठा तब उसने देखा एक कौवा भीतर घुस आया है। और मरा पड़ा है। उसने पास जाकर देखा तो आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि यह कौवा वही था जिसे उसने 2 वर्ष पूर्व मारते-मारते छोड़ा था।
उसने कौवे की मृत्यु की सूचना पत्र लिखकर दादी के पास भेजी, पर उधर से उत्तर आया चाचा का। जिसमें लिखा था कि—दादी का निधन हो गया है। जिस दिन से वे मरीं, वह कौवा दिखाई नहीं दिया।
कौवे की सोफिया से मैत्री, उनके निधन पर उसका फ्रेडरिक के पास जाना और मृत्यु की सूचना देना गहन रहस्य है जिन पर मानवीय बुद्धि से कुछ सोचा नहीं जा सकता। सम्भवतः कोई और आद्य शंकराचार्य वहां उपस्थित होते तो कहते इस कौवे का सोफिया से पूर्व जन्म का कुछ सम्बन्ध रहा होगा सम्भव है वह उसका पति रहा हो। उसकी मृत्यु पर भी मोह-ममता कम न हुई हो जिसे पूरी करने के लिए वह अपने नाती फ्रेडरिक के पास पहुंचा होगा और वहां शीत सहन न करने के कारण मर गया होगा। यही सब संसार का माया-मोह है जो जीव को विभिन्न योनियों में भ्रमण कराता रहता है। भौतिकता सहन करते हुए भी मनुष्य इस तरह के आध्यात्मिक सत्यों की बात क्षण भर को सोचता नहीं जबकि कुछ न कुछ रहस्य इन कथानकों में रहता अवश्य है।
आत्मसत्ता द्वारा स्वयं को शाप और वरदान
ऐसे असाधारण उदाहरण यानी अपवाद बहुत अधिक नहीं हैं। वे सामान्य नियम नहीं हैं तो इसका यह अर्थ नहीं कि वे यों ही, संयोग मात्र हैं। प्रकृति का प्रत्येक कार्य-व्यापार सकारण है।
अन्य जीवों में पाये जाने वाले असामान्य कोटि के मानवी संस्कार इस तथ्य के प्रतिपादक हैं कि सामान्यतः मनुष्य निम्नतर योनियों में कभी जाता नहीं। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन पूर्ण सत्य है कि मानवीय चेतना इतनी उत्कृष्ट एवं परिष्कृत कोटि की है, कि उसका निचली योनियों में जाना लगभग असम्भव है। तो भी यदि कोई मनुष्य अपनी संकल्प शक्ति का इतना भीषण दुरुपयोग करे कि वह मानवीय सद्गुणों से निरन्तर दूर ही हटता जाये, मानवीयता की संज्ञा ले जुड़े भाव-स्पन्दनों को कुचलता ही रहे और पाशविक प्रकृतियों को ही अपनाकर उन्हीं को अपना साध्य, इष्ट, लक्ष्य समझ ले तो किया क्या जाये? ऐसे नर-पशुओं नर-कीटकों का निम्नतर योनि में जाना उचित भी है स्वाभाविक भी। परन्तु इस कोटि का पतन कम ही मनुष्यों का हो पाता है। जिस प्रकार देवोपम-स्तर बहुत थोड़े लोग ही प्राप्त कर पाते हैं उसी प्रकार पुनः नीचे जाने को विवश कर देने वाली हीनतर प्रवृत्तियां उससे भी कम ही लोग पूरी तरह अपनाते हैं। अधिकांशतः लोग अपनी शक्तिभर ऊपर उठने का ही प्रयास करते हैं। क्योंकि आनन्द प्राप्त करने की प्रत्येक जीवात्मा की मूलभूत इच्छा होती है और मनुष्य योनि में आने तक जीवात्मा इतनी विकसित तो हो ही चुकी होती है कि वह आनन्द के नाम पर नारकीय दुःखों को ही अपनाने में न जुट जायें। फिर जब कभी वह मोह तथा वासना के आवेग में उधर अधिक झुकता भी है, तो उसका मानवीय अंतःकरण उसे ही कचोटने लगता है वह छटपटाने लगता है और तब तक सामान्य स्थिति में नहीं आ पाता, जब तक प्रायश्चित्त और भूल-सुधार कर वह पुनः सामान्य एवं सहज मानवीय-स्तर को प्राप्त न कर ले, उसी राह पर चलने न लगे जो मनुष्यता के अनुकूल है।
इस प्रकार अपवाद-स्वरूप ही लोग मनुष्य बनने के बाद निचली योनियों में जाते हैं। श्रीमद्भगवद् गीता का यह कथन जन्मांतर स्थिति को भली भांति स्पष्ट करता है— ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था, मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः । जघन्य गुण वृत्तिस्था अधोगच्छन्ति तामसाः ।।
अर्थात् सात्विक वृत्ति वाले लोग मरणोपरांत उच्चतर लोकों को जाते हैं, मध्यम स्तर के रजोगुणी मनुष्य पुनः योनि में ही जन्म लेते हैं और जघन्य कर्मों दु;प्रवृत्तियों में लिप्त तामसिक निचली योनियों में जाते हैं। कठोपनिषद् में नचिकेता यमराज से पूछते हैं—‘मरने के बाद मनुष्य की गति क्या होती है?’ यमराज उत्तर देते हैं— न प्राणेन नापानेन मृर्त्यो जीवति कश्चन । इतरेण तु जीवन्ति यस्मिन्नेता वुपाश्रतो ।। —द्वितीय बल्ली 5
योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽतुसंयन्यिथा कर्म यथाश्रुतम ।। —द्वितीय बल्ली 6
हे नचिकेता! कोई भी देहधारी प्राण या अपान से ही जीवित नहीं रहता किन्तु जिसमें यह दोनों आश्रित हैं (कारण शरीर) उसी के आधार पर जीवित रहते हैं। अगले मंत्र में मृतात्मा देहान्त के पश्चात् कैसे रहता उस पर प्रकाश डाला है कहा है अपने-अपने कर्मों के अनुसार जिसने श्रवण द्वारा जैसा भाव प्राप्त किया, उसके अनुसार कितने ही जीवात्मा देह धारण के लिए विभिन्न योनियों को प्राप्त होते हैं और अनेकों जीवात्मा अपने कर्मानुसार वृक्ष, लता, पर्वत आदि स्थावर शरीरों को प्राप्त होते हैं। स्पष्ट है कि अगले जन्म में कैसी, किस स्तर की योनि मिलेगी यह मनुष्य के अपने ही हाथ में है। तभी तो गीता में कहा है—
‘आत्मैव हयात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मना’
अर्थात्, ‘मनुष्य की आत्मसत्ता आप ही अपनी मित्र और आप ही अपनी शत्रु होती है।’
आत्म-सत्ता के संकल्प एवं कर्म ही प्रत्येक मनुष्य की प्रगति या पतन के आधार बनते हैं। मनुष्य की अपनी इच्छाशक्ति एवं उसके कर्म ही जीवन-प्रवाह के नये-नये मोड़ों का कारण बनते रहते हैं। यह इच्छा-शक्ति आत्मसत्ता से सदैव सम्बद्ध रहती है।
ब्राजील वासी श्रीमती इडा लोरेंस को ‘सियान्स’ (मृतात्माओं के आह्वान सम्बन्धी बैठकें) में तीन बार उनकी पुत्री इमिलिया का मृतात्मा ने सन्देश दिया कि मैं अब तुम्हारे पुत्र के रूप में जन्म लूंगी। इमिलिया को अपने लड़की होने से घोर असन्तोष था। वह अक्सर कहती थी कि यदि पुनर्जन्म सचमुच होता है, तो अगले जन्म में मैं पुरुष बनूंगी। उसने अपने विवाह के सभी प्रस्ताव ठुकरा दिये और 20 वर्ष की आयु में विष खाकर मर गई। बाद में ‘सियान्स’ में इमिलिया ने अपनी मां से अपनी आत्म-हत्या पर पश्चात्ताप व्यक्त किया। साथ ही पुत्र रूप में अपने पुनर्जन्म की इच्छा व्यक्त की।
लिंग-परिवर्तन भी भावसत्ता के ही अनुसार
योनि-परिवर्तन ही नहीं, लिंग का कारण भी इच्छा शक्ति ही होती है। श्रीमती इडा लोरेन्स अब तक 12 बच्चों को जन्म दे चुकी थीं और अब सन्तान की उन्हें सम्भावना नहीं थी। पर इमिलिया की मृतात्मा का सन्देश सत्य निकला। अपनी मृत्यु के डेढ़ वर्ष बाद इमिलिया ने पुत्र रूप में पुनर्जन्म लिया। उसका नाम रखा गया—पोलो।
पोलो की रुचियां और प्रवृत्तियां इमिलिया जैसी ही थीं। सिलाई में इमिलिया निपुण थी, तो पोलो भी बिना सीखे ही 4 वर्ष की आयु में सिलाई में दक्ष हो गया। इमिलिया की ही तरह पर्यटन पालों को भी अति प्रिय था। इमिलिया एक खास ढंग से डबल रोटी तोड़ती थी। पोलो में भी वही अन्दाज पाया गया। पोलो अपनी बहिनों के साथ कब्रिस्तान जाता, तो सिर्फ इमिलिया की कब्र पर फूल चढ़ाता। वह भी यह कहते हुए कि—‘मैं अपनी कब्र की देखभाल कर रही हूं।’ शुरू में पोलो की बातें लड़कियों जैसी ही थीं। उसके व्यक्तित्व में अन्त तक नारी तत्वों की प्रधानता रही। अपनी बहिनों के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों के प्रति उसमें लगाव नहीं था और वह अविवाहित ही रहा।
मनोवैज्ञानिकों और परामनोवैज्ञानिकों ने उसका परीक्षण किया। उसमें स्त्री सुलभ प्रवृत्तियां पाई गईं।
इसी तरह श्री लंका की एक बालिका ज्ञान तिलक ने दो वर्ष की आयु में बताया कि पूर्व जन्म में वह लड़का थी। पूर्व जन्म वाले स्थान से एक दिन वह गुजरी तो सहसा उसके दिमाग में कौंधा कि वह पूर्व जन्म में यहीं पर थी। उसने अपने पूर्व जन्म की गई बातें बताईं जो सत्य निकलीं। ज्ञानतिलक का पूर्व जन्म का नाम तिलक-रत्न था। इमिलिया को लड़का होने की तीव्र इच्छा थी, तो तिलकरत्न में नारी व्यक्तित्व की प्रधानता थी और पुनर्जन्म में वह लड़की ही बनी। साथ ही पुरुष बनी इमिलिया में नारी-प्रवृत्ति अवशिष्ट थी, तो नारी बने तिलकरत्न में पुरुष प्रवृत्तियां विद्यमान थीं।
उसके अनुरूप ही संस्कार सूत्र (जीन्स) में परिवर्तन आ जाता है, जीन्स कभी नष्ट नहीं होते, यदि उनमें चेतना का अंश सिद्ध किया जा सके तो यह निश्चयपूर्वक विज्ञान द्वारा भी शरीर नष्ट हो जाने पर भी इच्छा शक्ति का कभी अन्त नहीं होता। मृत्यु के समय एक या अनेक इच्छाएं बलवान हों तो कहा जा सकता है कि अपनी इच्छाओं के वश में बंधा हुआ होने के कारण ही मनुष्य दूसरी-दूसरी योनियों में भटकता रहता है।
अन्तिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस जीवन के जीन्स से मिल जाते हैं, उसी ओर वे आकर्षित होकर वही योनि धारण कर लेते हैं। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर मनुष्य शरीर में आता है। गर्भोपनिषद में इस बात की पुष्टि हुई है—
पूर्व योनि सहस्त्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया । आहारा विवधा मुक्तः पीता नानाविधाः । स्तनाः . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . । स्मरति जन्म मरणानि न च कर्म शुभाशुभं विन्दति ।।
अर्थात्—उस समय गर्भस्थ प्राणी सोचता है कि अपने हजारों पहले जन्मों को देखा और उनमें विभिन्न प्रकार के भोजन किये, विभिन्न योनियों के स्तन पान किये। अब जब गर्भ से बाहर निकलूंगा, तब ईश्वर का आश्रय लूंगा। इस प्रकार विचार करता हुआ प्राणी बड़े कष्ट से जन्म लेता है पर माया का स्पर्श होते ही गर्भ ज्ञान भूल जाता है शुभ-अशुभ कर्म लोप हो जाते हैं। मनुष्य फिर मनमानी करने लगता है और इस सुरदुर्लभ शरीर के सौभाग्य को भी गंवा देता है।
सौभाग्य से हीकल्स की अपनी अगली व्याख्या से ही इस बात का समर्थन हो जाता है। उन्होंने भ्रूण-विज्ञान (एम्ब्रियोलाजी) में एक प्रसिद्ध सिद्धान्त दिया—‘‘आन्टोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी’’ अर्थात् चेतना गर्भ में एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक, सृष्टि में या विकासवाद के अन्तर्गत जितनी योनियों आती हैं, उन सब की पुनरावृत्ति होती है। प्रति तीन सेकिंड से कुछ कम के बाद भ्रूण की आकृति बदल जाती है। स्त्री के प्रजनन कोष (ओवम) में प्रविष्ट होने के बाद पुरुष का बीज-कोष (स्पर्म) 1 से 2, 2 से 4, 4 से 8, 8 से 16, 16 से 32, 32 से 64 इस तरह कोषों में विभाजित होकर शरीर बनता है।
9 माह 10 दिन के लगभग की अवधि गर्भ धारण की मानी गई है, इस अवधि में लगभग 24192000 सेकिंड होते हैं, तीन सेकिंड से कुछ कम में आकृति बदलने का अर्थ भी 8060666 (लगभग 84 लाख ही) विभिन्न आकृतियों का परिवर्तन आता है। यह 84 लाख योनियां एक प्रकार से जीव जिन-जिन परिस्थितियों में रहकर आ चुका है, उनका छाया चित्रण होता है। परमात्मा ने यह व्यवस्था इस दृष्टि से की है कि मनुष्य जन्म लेने से पूर्व अपना यह लक्ष्य सुदृढ़ कर ले कि मुझे संसार में किसलिये जाना है। जब अपना लक्ष्य मनुष्य की भाव-सत्ता के सम्मुख स्पष्ट होता है, तो वह इस दिशा में बढ़ता ही चला जाता है।
मनुष्य की मूलभूत भावसत्ता ही उसकी गति का पथ और स्वरूप निर्धारित करती है। जब यह भाव-सत्ता भौतिक भोगों को ही अपना लक्ष्य मान बैठती है, तो उसे रोग-दुःख और अशान्ति के अंतहीन मरुस्थल में भटकते रहना होता है। परन्तु जब वही भाव-सत्ता चेतन आत्मा के स्वरूप को समझकर उसी से जुड़े रहने की सार्थकता समझ जाती है तो वह प्रगति की दिशा में बढ़ती ही चली जाती है। महत्व अपने प्रति अपनी ही भावना का, आन्तरिक श्रद्धा का है। गीता में कहा गया है—
‘‘श्रद्धामयोऽयं पुरुषो, यायच्छृद्धः स एक्सः ।’’
अर्थात्– जीवात्मा श्रद्धामय है, जिसकी अपने प्रति जैसी श्रद्धा होती है, वह वैसा ही उसी श्रद्धा-भाव जैसा ही हो जाता है। भाव सत्ता के अस्तित्व और उसकी शक्ति का प्रमाण है लिपजिग जर्मनी का न्यायाधीश ‘‘बेनेडिक्ट कारजो’’ जिसका जन्म 1620 में हुआ और मृत्यु 1666 में।
कारजो दुनिया का भयंकरतम न्यायाधीश था अपनी सर्विस की लम्बी अवधि में उसने 30 हजार से अधिक लोगों को फांसी की सजा दी, सजा देने के बाद वह फांसी होते देखने स्वयं भी जाता था। साथ में कुत्ता भी ले जाता था और फांसी से मरे हुये मृतक की लाश कुत्ते से नुचवाता था। ऐसा काई दिन नहीं गया उसके कार्यकाल में जबकि उसने कम से कम 5 व्यक्तियों को फांसी न लगवाई हो। एक दिन एक दुःखी मनुष्य की आत्मा कराह उठी। फांसी पर चढ़ने के पूर्व उसने शाप दिया—तेरी कुत्तों जैसी मृत्यु होगी, जिस दिन तेरा कुत्ता मरेगा उसी दिन तू भी मर जायेगा और कितने ही जन्म तू बार-बार कुत्ता होकर मरेगा।
अभी शाप दिये कुछ ही दिन बीते थे कि एक दिन उसके पालतू कुत्ते को एक पागल कुत्ते ने काट लिया, फिर उसी के कुत्ते ने उसे काट लिया। कुत्ता मर गया उसके कुल तीन घण्टे पीछे कुत्तों की तरह भौंक-भौंक कर उसकी भी मृत्यु हो गई। यह तो पता नहीं अगले जन्म में वह क्या हुआ पर यह आश्चर्य तो सभी को हुआ कि निर्दोष आत्मा के शाप—जिसे भावनाओं का आन्तरिक विस्फोट कहना ज्यादा उपयुक्त है—ने उसे किस तरह नारकीय परिस्थितियों में जा धकेला।
वस्तुतः आत्मसत्ता में ऐसी ही अकूत सामर्थ्य विद्यमान है। वह जब उच्चस्तरीय प्रगति के लिए भाव-विस्फोट करती है, तो उसके परिणाम वरदान के रूप में सामने आते हैं निम्नतर गति विधियों के लिए जब भाव, विस्फोट होते हैं, तो उनका फल शाप के रूप में सामने आता है।
ये शाप-वरदान दूसरों के लिए तो यदा-कदा ही फलीभूत होते हैं, किन्तु अपने लिए आत्मा में जिस प्रकार के भावों का आन्तरिक विस्फोट होता रहता है, उनका अपने को ही परिणाम निरन्तर मिलता रहता है। श्रेष्ठ प्रयोजनों में लगने पर आत्मसत्ता स्वयं को ही वरदान देती रहती है। और उसे निकृष्ट गतिविधियों में नियोजित करने पर वह स्वयं को ही धिक्कार एवं शाप देती है। आत्मोत्कर्ष या आत्मिक पतन के देव-योनि अथवा पशु-योनि के वर्णन के जिम्मेदार हम आप ही हैं।