जनरल केदारनाथ सहगल
भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास में लाला केदारनाथ सहगल काले कपड़ों वाले जनरल के नाम से जाने जाते थे। 1896 में इनका जन्म लाहौर के एक सम्पन्न परिवार में हुआ था। माता-पिता ने इन्हें एक अच्छे और महँगे विद्यालय में यह सोचकर भर्ती कराया कि इससे इनका भविष्य उज्जवल बनेगा; पर वहाँ के प्रधानाचार्य स्वयं क्रान्तिकारी थे, अतः इनके मन में बचपन से ही देशसेवा की भावना घर कर गयी।
उस समय पंजाब में सरदार अजीत सिंह तथा सूफी अम्बाप्रसाद ‘भारतमाता संस्था’ के माध्यम से गाँव-गाँव घूमकर अंग्रेजों को भूमिकर न देने का अभियान चला रहे थे। 1907 में 11 वर्ष की अवस्था में ही केदारनाथ जी भी उसमें शामिल हो गये। 1911 में सशस्त्र कानून के अन्तर्गत इन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया। जेल जाने से इनकी इनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गयी; पर इन्होंने कुछ चिन्ता नहीं की।
1914 में इन्हें लाहौर में हुए एक काण्ड में अपराधी ठहराकर फिर गिरफ्तार किया गया। तीन साल तक चले मुकदमे के बाद इन्हें साढ़े चार साल की सजा देकर मुल्तान जेल भेज दिया गया। वहाँ से आते ही ये गांधी जी द्वारा चलाये गये असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े।
उस समय ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की लाहौर कमेटी के महामन्त्री थे। 1920 में इन्होंने प्रतिज्ञा की कि जब तक भारत स्वतन्त्र नहीं होगा, तब तक वे काले कपड़े ही पहनेंगे। तब से ही लोग इन्हें ‘काले कपड़ों वाला जनरल’ कहने लगे।
1921 में जब साइमन कमीशन भारत आया, तो उसके विरोध में पंजाब में भारी आन्दोलन हुआ। लाहौर में हुए विरोध कार्यक्रम में इन्होंने अपने साथियों सहित साइमन को काले झण्डे दिखाये। पुलिस ने भारी लाठीचार्ज किया, जिसमें लाला लाजपतराय बहुत घायल हुए। वह चोट उनके लिए घातक सिद्ध हुई और वे चल बसे। आगे चलकर भगतसिंह और उनके साथियों ने इसका बदला सांडर्स को मौत की नींद सुलाकर लिया।
सांडर्स काण्ड में केदारनाथ जी को भी तीन साल की सजा हुई। इसके अतिरिक्त मेरठ षड्यन्त्र काण्ड में भी इन्हें पाँच साल सीखचों के पीछे रहना पड़ा। प्रयाग उच्च न्यायालय में अपील के बाद 1933 में ये रिहा हुए।
अपनी आवाज सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए इन्होंने ‘खबरदार’ तथा ‘उर्दू अखबार’ नामक दो समाचार पत्र प्रारम्भ किये। लाला लाजपतराय के अखबार ‘वन्देमातरम्’ के प्रकाशक भी यही थे। इन पत्रों में शासन की खूब खिंचाई की जाती थी। आन्दोलन के समाचारों के लिए लोग इनकी प्रतीक्षा करते थे।
शासन को ये अखबार फूटी आँखों नहीं सुहाते थे। अतः उसने इन्हें बन्द करा दिया। केदारनाथ जी ने अपने पूर्वजों की सारी सम्पत्ति बेचकर स्वतन्त्रता आन्दोलन में लगा दी। उन्होंने अपने जीवन के कुल 26 साल अंग्रेजों की जेलों में बिताये। वहाँ इन्हें अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक प्रतारणाएँ झेलनी पड़ीं; पर इन्होंने झुकना या पीछे हटना स्वीकार नहीं किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी केदारनाथ जी ने इस देशसेवा के बदले में कुछ नहीं चाहा। 25 फरवरी, 1968 को हृदयगति रुक जाने से इनका देहान्त हो गया। काले कपड़ों वाले जनरल के प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए इनके साथियों ने इनके कफन में भी काले कपड़ों का ही प्रयोग किया।