जनता मारेगी कोड़ा
देखि चुनावी मौसम को फिर, भानुमती कुनवा जोड़ा।
किसी गांव की ईंट उठाई,किसी गांव का है रोड़ा।।
***************************************
डांगर का चारा चरकर भी,
ठोक रहे फिर ताल वही।
सौ-सौ चूहे खाकर के ज्यों,
हज को बिल्ली आज चली।
सदाचार ओ सत्कर्मों की,
हर मर्यादा को तोड़ा।
*******************
मुफ्त बांटते रेबड़िओं को,
समझ बाप का माल उसे।
कुर्सी पाने की खातिर ही,
इक दूजे के गृह घुसे।।
कैसे ही मिल जाए सत्ता,
रुख अब अपना है मोड़ा।
*******************
मदिरा की कुछ करें दलाली,
ये सब अवसरवादी हैं।
झूठ और प्रपंच रचाना,
ये सब इसके आदी हैं।
लेकिन शासन ने भ्रम इनका,
आज सहज ही है तोड़ा।
*******************
मछली जैसी आंख दीखती,
वोटर में जिनको अपने।
लेकिन चमचों की संगत से
टूट रहे उनके सपने।।
राजनीति नासूर दीखती,
बिना पका जैसे फोड़ा।
*******************
जोड़ तबेला नया-नया ये,
क्षद्म भेष में अब बैठे।
नहीं दिखाई देती जनता,
रहते हैं ऐंठे–ऐंठे ।।
उचित समय जब आयेगा तो ,
जनता मारेगी कोड़ा।
*********************
@अटल मुरादाबादी