जनता जनार्दन
लघुकथा
जनता जनार्दन
”मंगलू, ऐ मंगलू घर में नहीं हो क्या ?”
“क्या बात है सरपंच जी, आप क्यों चिल्लाए जा रहे हैं।”
”अरे मंगलू, देख, कौन आए हैं तुम्हारे घर। हमारे प्यारे विधायक, मंत्री जी।”
“तो… वे कोई भगवान थोड़े ही न हैं। अपने काम से ही आए होंगे। बिठाइए उन्हें हमारे बरामदे में। चाय-पानी भिजवाता हूँ अभी।”
“अरे ना रे मंगलू, वे चाय-पानी नहीं करेंगे। वे तो बस तुमसे मिलने आए हैं।”
“मुझसे मिलने ? मंत्री जी और मुझसे मिलने ?”
“हाँ मंगलू। तुमसे ही मिलने। चल जल्दी से बाहर आ जा।”
“सरपंच जी, आप उन्हें मेरे बरामदे में रखी चारपाई पर सम्मानपूर्वक बिठाइए। मैं जरा अपना एक जरुरी काम निबटा कर आता हूँ।”
“तू पागल हो गया है क्या मंगलू ? मंत्री जी तुम्हारे दरवाजे पर आए हैं और तुम उन्हें बरामदे में बिठाकर इंतजार कराना चाहते हो ?”
“हाँ सरपंच जी, आज उन्हें हमारा वोट चाहिए, इसलिए हमारे दरवाजे पर हाथ जोड़ कर खड़े हैं। कल जब वे चुनाव जीतकर मंत्री बन जाएंगे, तो हमें उनसे मिलने के लिए घंटों इंतजार करवाएंगे। जरा उन्हें भी तो पता चले कि किसी से मिलने के लिए इंतजार में घंटों खड़े रहना लगता कैसा है ? याद है पिछले साल जब गाँव में लड़कियों की अलग स्कूल खोलने के लिए हम सभी गाँववाले उनसे मिलने जाते थे, तो कैसे दिन-दिन भर इंतजार करवाते थे।”
मंगलू की बात सुनकर सरपंच जी निरुत्तर हो गए।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़