जटिलता से सरलता की ओर। ~ रविकेश झा
बाहर तो लड़ाई करते ही हैं लेकिन हम अंदर भी लड़ते हैं हमें कैसे भी सही होना है, जैसे क्रोध उठता है वासना हम लड़ते हैं नहीं करना है त्याग करने का मन होता है लेकिन लड़ाई के चक्कर में हम उलझते जाते हैं। और अंदर लड़ने लगते हैं ऐसे में हम जानने के और नहीं बल्कि जटिलता को बढ़ावा देने लगते हैं। हम भागने लगते हैं क्रोध को दमन करना चाहते हैं ऐसे में क्रोध और बढ़ने लगता है कोई कोने में ऊर्जा रह जाता है फिर कभी भी वापिस लौट आता है। ऐसे में हम कितने चीजों को जानते रहे इस चक्कर में हम भागने लगते हैं और भी काम रहता है। ऐसे में हम क्रोध वासना घृणा को समझ नहीं पाते और भागने पर ज़ोर देने लगते हैं मानने लगते हैं स्वयं से लड़ लेते हैं हम ऊपर की ओर उठना नहीं चाहते क्योंकि फिर भ्रम का क्या होगा जो हमने वर्षो से पाल रखा है। हम कुछ जान नहीं पाते फिर स्वयं से ही लड़ने लगते हैं कि हमसे नहीं हो रहा है लगता है नहीं होगा किस्मत खराब है। फिर हम अंदर से क्रोध आने लगता है स्वीकार करने के जगह हम भागने लगते हैं। हम चाहते हैं सीधा परिणाम मेरे अनुकूल हो अगर नहीं आया फिर स्वयं से लड़ने लगते हैं स्वीकार नहीं करते कि हमारी ही गलती है कहां हम चूक किए हैं निरीक्षण करने के जगह हम क्रोध घृणा त्याग से भर जाते हैं। हमें स्वयं को स्वीकार करना होगा क्रोध से लड़ना नहीं है ये नहीं सोचना है कि हमसे नहीं होगा, हम क्रोधी ही रहेंगे हमेशा, बल्कि क्रोध घृणा को स्वीकार करना होगा, क्रोधित होना होगा पूरा तभी तो जानोगे कि क्रोध क्या है और कैसे उत्पन्न होता है शुरू से अंत तक देखना होगा। बस आपको पीछे खड़े होकर देखना है साक्षी होकर, लेकिन मन में कुछ और बचे ना सबको स्वीकार कर लेना होगा बल्कि ये भी स्वीकार कर लेना है की हम अभी कुछ नहीं जानते हमें जानना है ये श्रद्धा बस रखना है कि हमें जानना है अंत तक चाहे परिणाम जो हो हमारे अनुकूल हो या नहीं बस अंत तक जानते जाना है।
लेकिन हम क्रोध से भर जाते हैं हमसे नहीं होने वाला लेकिन ये बात भी हम स्वीकार नहीं करते मन में ये भी चलता रहता है कि होना चाहिए मुझे भी चाहिए कैसे होगा दोनों को लेकर नहीं चलना है। यदि पूर्ण जानना है तो स्वीकार कर लो कि मुझे नहीं पता मुझे जानना है लेकिन अंत तक क्योंकि अभी हम बाहर का ज्ञान को अर्जित कर लिए हैं लेकिन अंदर कुछ काम नहीं आता क्योंकि हमने अंदर कुछ नहीं जाना प्रेम का फूल तक नहीं खिल पाया बस क्रोध घृणा से भर गए जीवन भर जो हमारा स्वभाव है उसे हम भूल गए उसे हम कबका अतीत मान लिए। हम सोचते हैं मूर्ख प्रेम करता है बुद्धिमान भोग में रुचि रखता है प्रेम दिखावा के लिए करता है दया भी ताकि समाज में जगह बना रहे लोग आदर्शवादी समझने लगे और क्या समाज को भी क्या पता है समाज भी दूसरे पर निर्भर है। समाने वाला क्या कर रहा है हम भी वही न करेंगे क्योंकि पेट भी भरना है लोग त्याग देंगे लोग बेवकूफ और पागल समझेंगे। हम बाहर समझ जाते हैं ताकि समाज अच्छा कहे हमें लेकिन अंदर का क्या अंदर से तो हम सब क्रोध हिंसा ग्रीन वासना को बस बढ़ावा देते हैं। बाहर तो समझ गए भय के कारण चुप हो जायेंगे लेकिन कामना का क्या छुप कर करना होगा क्योंकि आंतरिक रूपांतरण का कोई बात नहीं कर रहा सब बदलने की बात कर रहे हैं। ऐसे में बाहर से बदल जाते हैं लेकिन अंदर का क्या होगा अंदर नहीं हो पाता फिर आ जाता है घूम के कहीं से शरीर बदल जाएगा मन का क्या होगा मन फिर घूम के वासना क्रोध घृणा आ ही जाता है क्योंकि बदलेगा कौन ये चेतन मन तक बात आती है लेकिन जब हम निकलते हैं फिर अचेतन और अवचेतन मन पकड़ लेता है क्योंकि हम बदलने की बात पर सहमत हो गए थे। बदलने का अर्थ क्या है घृणा नहीं करना क्रोध नहीं करना है बस ऊपर से हमें बोल दिया जाता है की खुद को बदलो, ये बात चेतन मन को अच्छा भी लगता है जचता है लेकिन बाकी मन का क्या वह साथ नहीं देता। इसीलिए हमें रूपांतरण पर ध्यान देना होगा क्रोध को बढ़ने देना होगा देखना होगा की आ कहां से रहा है स्रोत कहां है। जब आप पूर्ण जान लोगे फिर आप स्वयं को स्वयं रूपांतरण कर लोगे कोई बदलने की आवश्कता नहीं पड़ेगा कोई नहीं, स्वयं रूपांतरण हो जाएगा क्योंकि आप जड़ और अंत दोनों को जान लोगे।
लेकिन हमारे गुरु लोग इस बात को क्यों नहीं समझते क्या उन्हें जानकारी नहीं है, हां वह ध्यान के माध्यम से स्वयं को नहीं जान रहे हैं बस भक्ति में डूब जाते हैं। उनका मानना रहता है कि जो भगवान ने लिखा है रास्ता बताया है क्यों न उनके ही उंगली को पकड़ लिया जाए क्यों हम जानने में लगे जब भगवान ने बनाया है दुनिया तो उनके भक्ति करने से वह प्रसन्न हो जायेंगे और मुक्ति देंगे मोक्ष देंगे जन्नत देंगे। इसी चक्कर में हम भक्ति को सहारा बना लेते हैं। ध्यान में हम रुचि क्यों नहीं लेते क्योंकि हम भागने वाले व्यक्ति हैं मानने वाला हमें तुरंत मानना है कि ईश्वर हमें मिल गया हम ध्यान में भी बैठते हैं तो ये सोच कर कि भगवान कृष्ण दर्शन देंगे वह भी शरीर के साथ लेकिन ध्यान का अर्थ है शरीर कल्पना विचार से परे जाना मृत्यु में प्रवेश करना सारा यादें को मिटाना होता है जिसका स्रोत बाहर रहता है उस सबको ध्यान के मध्य शून्य करना होता है विज्ञान में प्रवेश करना होता है जो ज्ञान से परे है चेतन मन से भी परे जाना होता है लेकिन हम सब चेतन अचेतन अवचेतन बस यही में रहते हैं लेकिन सब मूर्छा में कामना में रहकर स्वप्न में खो कर उपयोग करते हैं लेकिन सब काम मूर्छा में होता है। तूरीया का पता नहीं होने का मतलब पता नहीं हम सब इसीलिए भक्ति को चुनते हैं आसान लगता है। भक्ति भी ठीक है लेकिन थोड़ा जान लो जो महापुरुष है उन सब से प्रेम करो लेकिन ध्यान भी करो यदि मुक्ति की ओर बढ़ना है तो। नहीं तो बस जटिलता ही हाथ लगेगी और हम सब मौत के अंत तक बिखर जाएंगे और कुछ हाथ नहीं लगेगा न बाहर न अंदर। इसलिए अभी समय पर्याप्त है आप सबको ध्यान में उतरना चाहिए ताकि पूर्ण शांति और सद्भाव स्पष्टता भी आ सकें। देर हो गया कोई बात नहीं अभी अभी भी हम कर सकते हैं भक्ति अवचेतन अनाहत चक्र पर ही अटका है शून्यता के शिखर तक नहीं पहुंचा है। पहुंचना होगा आप गुरुत्वाकर्षण के बारे में पढ़े होंगे जो नीचे के तरफ़ पृथ्वी के तरफ़ झुकाव होता है लेकिन जब आप ध्यान में प्रवेश करते हैं फिर आप ऊपर की ओर बढ़ने लगते हैं ऊर्जा ऊपर की ओर बढ़ने लगता है गुरुत्वाकर्षण के ठीक विपरित जिसका अंत सिर की ओर रहता है। लेकिन हम ऊपर उठने के बजाय नीचे के ओर बढ़ते हैं जहां कामना हमारा उद्देश्य होता है क्रोध घृणा हमारा मित्र बन जाता है।
ऐसे में जीवन नहीं चलता आप ऐसे में बस जीवन को जटिलता से भर देंगे और अंत में हाथ कुछ नहीं लगेगा और हम शांत होने के बजाय भ्रम में जीने लगेंगे। क्योंकि हम यहां जानने में उत्सुक नहीं होते बस मानने में कोई कह दें हमें कि परमात्मा यहां है हम बस उनके उंगली को पकड़ लेंगे और बस उनके भक्ति में लग जाएंगे स्वयं को कमज़ोर समझने लगेंगे। लेकिन ख़ोज के तरफ़ नहीं बढ़ेंगे क्योंकि उसमें अतीत भविष्य से पीछा छुड़ाना रहता है छोड़ना होता है। और हम है कामुक और कल्पनाएं से भरे पड़े हैं अंदर से बदलने में हम तयार हो जाते हैं लेकिन रूपांतरण से डरते हैं। ऐसे में हम स्वयं को मूर्ख बनाते हैं और क्या स्वयं सोचिए साहब आप कामना और बाहरी करुणा के अलावा क्या करते हैं लड़ने के अलावा क्या करते हैं बाहर लड़ते हैं या अंदर या लड़ने की तयारी में जुट जाते हैं। लेकिन क्यों करना है ये सब इस पर कभी हमारा दृष्टि नहीं जाता और हम अज्ञान मार्ग को सार्थक समझ कर चलते रहते हैं। यदि कुछ सार्थक कार्य करना ही है तो स्वयं को जानना सबसे बेहतर होगा। अंदर उत्सव हो रहा है प्रभु विराजमान हैं सोचिए कितना आनंदित वातावरण होगा लेकिन हम सब सोचते भी है तो मन के अन्य भागों में फंस जाते हैं। लेकिन अब उपाय है अब देश दुनिया विकसित हुआ है ध्यान करने के बहुत उपकरण मौजूद है बहुत साधन मौजूद है बस साधन को मंज़िल नहीं। उपयोग करना है न की लिप्त, बस होश के साथ हमें स्वयं को ढूंढना है तभी पूर्णता के तरफ़ हम सब बढ़ेंगे और स्वयं को पूर्ण विकसित करेंगे। कोई कुछ कर रहा है ठीक है उसे करने दे बस आप भीड़ में होश को न हटने दे सब कुछ जानते रहिए भीड़ में रहकर, भागोगे तो चूक जाओगे भागना नहीं है मानना नहीं है भागोगे कहां हर जगह वही मिलेगा जिसके लिए भागोगे शरीर नहीं उसकी कल्पना विचार याद आयेगी या दूसरे विचार या त्याग में प्रवेश कर जाओगे। नहीं भागना नहीं है जागना है जानना है उठना है। तभी हम सब पूर्ण सत्य वर्तमान के ओर उठेंगे और पूर्ण जागेंगे।
कैसे भी बाहरी संबंध बना रहे अंदर से तो हम किसी के नहीं है अपने भी नहीं है। रहते तो क्रोध हिंसा घृणा अति को बढ़ावा नहीं होने देते बाहर से हम संबंध बना लेते हैं अंदर कुछ और चलता रहता है ईर्ष्या और वासना जैसी बीमारी हमें घेर लेती है और जटिलता में प्रवेश करने के लिए उत्तेजित करने लगता है। हम बाहर के तरफ भागते हैं जानने के बजाय हम बाहर जाते हैं क्योंकि और को देखते हैं भीड़ के तरफ़ दौड़ते हैं सोचते हैं कुछ हाथ लग जाएगा। ताश खेलने में उत्सुक होते हैं आज कल मोबाइल ऐप से भी हम लोग टाइम पास करने लगते हैं लूडो या अन्य खेल खेलने लगते हैं। कैसे भी टाइमपास हो जाए कैसे भी क्षण भर के लिए सुख भोग लूं और नहीं तो सिनेमा हॉल या कहीं घूमने निकल पड़ते हैं लेकिन हम एकांत में नहीं आना चाहते। लोग भी वही कर रहा है या हम मूर्ख तो नहीं जो और लोग कर रहे हैं हम भी वही करें फिर और लोग ध्यान को कैसे उपलब्ध हो जाते हैं कैसे बुद्धत्व को प्राप्त होते हैं। नहीं हम सब कुछ करना चाहते हैं कुछ बनना चाहते हैं हम अकेलापन से भागते हैं कौन अकेला रहना पसंद करेगा, उसे नवीन स्त्री या अन्य भोग में रस आएगा वह या तो दमन करेगा या उसमें फंस जायेगा या तो कुछ बनने तक के लिए इंतज़ार करेगा दमन करेगा भागेगा, या तो तंग आ कर नदी में वह भी डुबकी लगाना चाहेगा। क्योंकि दमन कितना करेगा छिपके रस का आनंद लेगा समाज के डर से लेकिन स्वयं को जानने में उत्सुक नहीं होगा वही ऊर्जा है जो दमन में लगाने लगते हैं भोग में प्रवेश कर जाते हैं या शून्यता के तरफ़ ऊर्जा का उपयोग करने लगेगा ऊर्जा तो वही है लेकिन हम सब जानने में उत्सुक होते ऊर्जा हमें नीचे के तरफ़ खींचती है सब नीचे है भोग स्वाद का मुख्य आकर्षण सब नीचे है इसीलिए हम सब नीचे गिरते रहते हैं। कोई उठाने लगे तो क्रोध आ जाता है सोचते हैं हम जो कर रहे हैं वह सही है और बाकी मूर्ख बनाते हैं इसी चक्कर में हम जानने में उत्सुक कम कोई सांत्वना दे दे कोई कह दे तुम सही हो इसीलिए तो जीवन मिला है उसमें हम खुश हो जाते हैं। कोई मित्र कह दे जो तुम कर रहे हो वह सही है अगर कोई कुछ बोले तो उसे मार दो पीट दो छोड़ना नहीं उसे हमको रोकेगा काट देंगे। क्रोध बाधा बन जाता है हम क्रोध को पालते रहते हैं जानने के बजाय खुश होते हैं कि हम क्रोधी है हम उससे जीत सकते हैं, मैं हिंसा में सबका बाप हुं हमसे बड़ा कोई खिलाड़ी नहीं है हम और तीव्र होने लगते हैं। अकेला हम होना नहीं चाहते क्योंकि कामना हमें पीछा नहीं छोड़ती हम पीछा छुड़ाना भी चाहते हैं त्याग का भाव आने लगता है।
लेकिन हमें त्यागना नहीं है जागना है कर्म को करना है लेकिन होश के साथ न की बेहोशी में घटने देना है हम अकेले होना भी चाहते हैं तो मन में विचार कल्पना का आयोजन होने लगता है हम उसमें फंसने लगते हैं। और विचार को जानने के बजाय उससे लड़ने लगते हैं ये विचार नहीं आना चाहिए ये गंदा है ये सही है ये क्यों है ये क्यों नहीं हो रहा है। या ये कितना अच्छा है कितना प्यारा है कितना अच्छा लग रहा है हम आंख को खोलते कहां है सब बेहोशी में हम सोचते रहते हैं। विचार आएगा ही स्वाभाविक है आपका शरीर है मन है बुद्धि भी है तो विचार कल्पना भोग के अलावा और क्या आएगा क्रोध घृणा ईर्ष्या अति नहीं आएगा तो क्या आएगा क्योंकि हम ऐसे ही सिस्टम को छोड़ दिए हैं जो देखते हैं अंदर अपने अनुसार भर लेते हैं फिर अपना कौन सा है उसी को प्रेम करेंगे बाकी को घृणा जो मिला अच्छा है जो नहीं मिल रहा है उसमें क्रोध आने लगता है। हम यही सब तो करते हैं और सोचते हैं पुष्प के तरह हमारे अंदर भी पुष्प खिलेगा हां खिल सकता है प्रेम का करूं का शांति का मैत्रेय का लेकिन उसके लिए सब बाहरी कचरा को बाहर फेंकना होगा जिसे हम स्वाद अनुसार भर के रखे हैं। हमें स्वयं के सिस्टम को देखना होगा शरीर के अंदर आना होगा मन बुद्धि कैसे काम करता है उसे देखना होगा रूपांतरण पर ज़ोर देना होगा पांच तत्व को ध्यान से देखना होगा। लेकिन हम परिणाम तुरंत चाहते हैं हम सोचते हैं हम ही तेज़ गति से सोचते हैं सोचो जहां विचार कल्पना का कोई स्थान नहीं है ज्ञान का कोई स्थान नहीं है जहां मात्र शुनूयता में पूरा शिखर समाया हुआ है सोचो वो कितना तेज़ होंगे जिसमें सूर्य चंद्रमा पृथ्वी को अपने अंदर लेकर चल रहा है उसे कितना घमंड होगा। लेकिन नहीं हम बाहरी खुशी को सच्चा आनंद समझ लेते हैं और ऐसे ही हम परिणाम तुरंत चाहने लगते हैं जैसे यहां डिग्री मिल जाता है कुछ विषय को अध्यन करने पर। लेकिन वहां क्या मिलेगा और कौन देगा लेने वाला भी वही रहेगा और देने वाला भी किसको चाहिए और देगा कौन, लेकिन हम वहां भी दावेदारी पेश करने में लगे हुए हैं कि स्वर्ग मिल जाए परमात्मा का दर्शन प्राप्त हो जाए सब कामना है जब कामना से हम ऊपर नहीं उठेंगे होश में प्रवेश नहीं करेंगे हम कुछ नहीं जान पाएंगे। प्रभु को देखना भी कामना ही हुआ इसीलिए कुछ ध्यानी कहते हैं ईश्वर नहीं है देखने वाला अभी तक बचा ही है इसीलिए बुद्ध कहते हैं ईश्वर नहीं है।
कौन देखेगा ईश्वर को फिर तो देखने वाला बच ही गया पूर्ण सत्य अभी नहीं पता चला पांचवा और छठा चक्र पर आकर रुक गए वह देखने वाले का पता लगाना होगा देखने वाला आखिर कैसे बच गया। शून्यता उसे दिखाई पर ही रहा है अभी तक वह स्वयं शून्य नहीं हो पाया देखने की इच्छा बच ही गया। इसीलिए हम जब सातवां चक्र में प्रवेश कर जाते हैं फिर कुछ नहीं बचता कोई दृश्य नहीं बस दृष्टा बस साक्षी बस होना, इससे आगे कोई परिभाषित नहीं किया जा सकता आपको स्वयं अनुभव पर लाना होगा। दूसरे के अनुभव आपको छठा और सातवां चक्र से ऊपर नहीं उठने देगा आप मान लेंगे बताने वाले को ही बस ईश्वर मान लेंगे फिर वास्तविक सत्य से परिचित नहीं हो सकते जटिलता बढ़ती जायेगी और आप जीवन को नर्क बना लेंगे। यदि जीवन और मृत्यु से परे जाना है और ऊर्जा का कुछ सार्थक उपयोग करना है फिर आपको जागृत दिशा की ओर बढ़ना चाहिए। और आपस में श्रद्धा भाव रखना आवश्यक होगा महत्वपूर्ण होगा। हम जानते नहीं हैं अधिक बोलते हैं अधिक इसीलिए हम फंस जाते हैं हम शर्मिंदा महसूस करने लगते हैं और ऐसे में हमारी दृष्टि नीचे के तरफ़ झुकने लगता है स्वयं से घृणा होने लगता है हम उद्दास होने लगते हैं रोने लगते हैं। और सोचते हैं कोई हमें भी प्रेम कर ले झूठा ही सही हम प्रेम मांगने लगते हैं अंदर से अकेला महसूस करते हैं हम शायरी में रस लेने लगते हैं हमें धोका जैसा महसूस होने लगता है। ऐसे में या तो हम कुछ करने लगते हैं दुःख के साथ जीने का आदत बना लेते हैं परिवार वाले के लिए सोचकर जीने लगते हैं कोई उम्मीद दिखने लगता है फिर चिड़ियां उड़ने लगता है। नवीन स्वप्न देखने लगता है। या तो मृत्यु को गले लगा लेता है सोचता है अब जीवन का क्या होगा जैसे वह सही में मर ही जाएगा, आत्म तो फिर नया जन्म लेगा कौन मरता है कृष्ण भी यही कह रहे हैं अर्जुन को तुम बेकार में तनाव लेते हो वास्तविक सत्य कुछ और है तुम सब मुझ पर छोड़ दो युद्ध करो तुम अर्जुन युद्ध करो। इसका मतलब हम सब बेकार में मरने को त्यार हो जाते हैं सत्य को जाने बिना हम फंसने लगते हैं। हां हम सब कार्य मूर्छा बेहोशी में करते हैं इसीलिए हम जानते कम है मानते अधिक है। हमें जागना होगा यदि हमें पूर्ण जानना है तो जागना है तो बढ़ना है तो।
धन्यवाद। 🙏❤️
रविकेश झा