जग के दोहे–३
अधिक दिवस चलते नहीं, अधर्म के सब खेल ।
पापों का घट फूटता, हो जाती फिर जेल ।।
धर्म कभी होता नहीं, जीवन में बेकार ।
जो चलते इस राह पर, शांति पाते अपार ।।
अपने अपने कर्म से, लिख लो तुम तकदीर ।
श्रम कूँची से रंग लो, जीवन की तस्वीर ।।
झूठे कपटी का नहीं, होता कोई धर्म ।
कलुषित करें समाज को, ऐसे उसके कर्म ।।
मीठा मीठा बोलकर, जो साधे निज स्वार्थ ।
ऐसे खल करते नहीं, जन सेवा निःस्वार्थ ।।
लाख कमा धन लीजिए, सुत हो अगर कपूत ।
दीमक बनकर चट करें, धन संपदा अकूत ।।
फँसकर माया मोह में, भटक गया इंसान ।
रिश्ते नाते भूलकर, बेच दिया ईमान ।।
जब गट्ठा बंधा न हो, लकड़ी जाए टूट ।
एक एक जुड़कर रहो, बंधन रहें अटूट ।।
—–जेपी लववंशी, हरदा, म.प्र.
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