“जंगल की सैर”
“जंगल की सैर”
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आओ, ‘जंगल की सैर’ कराऊॅं;
जंगली जीव,के बारे में बताऊॅं।
वे हैं,एक-दूजे के जानी दुश्मन;
जंगल में न लगता, उनको मन।
बोझ बनता,जब उनका जीवन;
तोड़ दे,निज चेहरे वाला दर्पण।
तब दिन में देखे वे, एक सपना;
पूरा साम्राज्य , हो जाए अपना।
फिर, सबसे पहले ‘कुत्ता’ भौंके;
सुन,देशी-विदेशी ‘बिल्ली’ चौंके।
तभी,सभी सोता ‘लोमड़ी’ जागे;
एक ‘गदहे’ को, कर दे वो आगे।
दिखाने लगे वो,आपस में प्यार;
एक-दूजे पे मिटने,वे सब तैयार।
सब छोड़े, निज जंगली नफरत;
फिर, चढ़ना चाहे वे ऊंची पर्वत।
वहीं बनाते सब,अपनी सरकार;
वहां दिखा, बब्बर शेर होशियार।
आनन-फानन में,सब उल्टे भागे;
सुनकर,’हिंद के सिंह’ की दहाड़।
फिर एक-दूजे को,वे सब खटके;
जहां-तहां, सब ही सालों भटके।
हो जाते हैं वे,ऐसे ही सदा बेकार;
रंग-बिरंगी.सारे संगी,रंगा सियार।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️पंकज कर्ण
……कटिहार(बिहार)