छोड़ा हाथ हौसले ने न डरूँ तो क्या करूं
छोड़ा हाथ हौसले ने न डरूँ तो क्या करूं
खुद पर नहीं जब इख्तियार करूं तो क्या करूं
मिला नहीं अभी हवा को रही ज़ुस्तज़ू जिसकी
इठला के पूछती है ना फिरूँ तो क्या करूं
डूबा है सारा शहर जब समंदर-ए-सोज़ में
सोचूँ हूँ तन्हा तन्हा मैं तरूँ तो क्या करूं
इस क़दर कशिश है इसके ग़मों में ए ख़ुदाया
मौज-ए-दुनियाँ में बता ना घिरूँ तो क्या करूं
सोच में बैठा है आज जुनूं -ए- अश्क़ मेरा
अटके पलक पर कैसे ना गिरूँ तो क्या करूं
जब तलक कच्चा रहा सहारे पेड़ के रहे
पाक गया पेड़ से ना गिरूँ तो क्या करूं
लाख हसरतें उठी दिल में कोशिशें हज़ार कीं
हाथों की लकीरों में नहीं ‘सरु’ तो क्या करूं