छोटी-सी मदद
छोटी-सी मदद
दसवीं कक्षा में पढ़ने वाली निर्मला का घर शहर के आउटर एरिया में नेशनल हाइवे के पास ही है। कोरोना महामारी के संक्रमण को रोकने के लिए जब देशभर में लॉकडाऊन हो गया, तो वह भी एक प्रकार से अपने घर में कैद हो गई।
मम्मी के कामकाज में थोड़ी-सी मदद, टी.व्ही., मोबाइल और पुस्तकें यही समय बिताने के साधन थे। पापा डॉक्टर थे, जिनकी ड्यूटी कोरोना वार्ड में लगी थी। सुबह से ही ड्यूटी पर जाते, तो देर रात लौटते।
निर्मला प्रतिदिन सुबह-शाम मम्मी के साथ कुछ देर छत पर टहलती। जैसे ही लाकडाऊन-3 की घोषणा हुई, निर्मला ने गौर किया कि सुबह-शाम सड़कों पर बैग, गठरी या थैला लटकाए अनगिनत स्त्री-पुरुष अपने छोटे-छोटे बच्चों को लिए आ-जा रहे हैं। पूछने पर उसकी मम्मी ने बताया कि ये वे लोग हैं जो काम के सिलसिले में अपने घर से दूर दूसरे शहरों में रहते थे। लॉकडाऊन में जब कल, कारखानों और दुकानों में तालाबंदी हो गई, तो ये सब बेरोजगार हो गए। ट्रेन, बस, ट्रक सबके पहिए थम गए, तो लाचार होकर ये सब पैदल ही अपने-अपने घर की ओर निकल पड़े हैं। लगातार कई दिन पैदल चलकर ये अपने घर पहुँचेंगे। मम्मी ने उसे अखबार में छपे कुछ समाचार भी बताए कि कितनी कठिनाइयों का सामना करते हुए ये लोग अपने घर लौट रहे हैं।
सुनकर निर्मला का मन द्रवित हो गया। रात को जब उसके पापा लौटे, तो उनसे कहा, “पापा, यदि आप अनुमति दें, तो मैं इन प्रवासी मजदूरों की कुछ मदद करना चाहती हूँ।”
पापा ने पूछा, “कैसी मदद बेटा ?”
निर्मला बोली, “पापा, मैं चाहती हूँ कि कल से सुबह दस से चार बजे तक अपने घर से एक किलोमीटर लेफ्ट से लेकर एक किलोमीटर राइट साइड तक उन मजदूरों के सामान या बच्चों को मैं अपनी सायकिल में रखकर पहुँचाऊँ।”
पिताजी ने कहा, “बेटा, ये लोग सैकड़ों किलोमीटर दूर के सफर पर निकले हैंं। यूँ तुम्हारे दो किलोमीटर की मदद से क्या होगा ?”
निर्मला बोली, “पापा, उन्हें कुछ तो राहत मिलेगी ही न। रामायणकाल में जब रामसेतु बन रहा था, तो नन्ही गिलहरी ने भी तो अपनी भागीदारी की थी। ऐसा समझकर आप मुझे अनुमति दे दीजिए। पापा, ऐसा करके मुझे आत्म-संतुष्टि भी मिलेगी।”
पापा चिंतित स्वर में बोले, “बेटा, यदि इनमें से कोई मजदूर कोरोना पॉजिटिव हुआ, तो तुम भी संक्रमित हो सकती हो; क्योंकि इनमें से कई मजदूर उन क्षेत्रों से लौटकर आ रहे हैं, जहाँ कोरोना संक्रमण के मद्देनजर कंटेनमेंट जोन बना हुआ है।”
निर्मला बोली, “पापा, सिर्फ़ इस डर से ही तो मेरा पीछे हटना ठीक नहीं। मैं पूरी सावधानी बरतूँगी। मास्क और सेनिटाइजर लगाकर रहूँगी। आप भी तो प्रतिदिन हॉस्पिटल जा रहे हैं, फिर मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकती ?”
बेटी की इच्छा के सामने मम्मी-पापा को झुकना ही पड़ा।
अब निर्मला प्रतिदिन सुबह दस से शाम के चार बजे तक प्रवासी मजदूरों के सामान और बच्चों को दो-दो किलोमीटर तक पहुँचा रही है।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़