#छोटी बुआ
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{ कहानी }
⚔️ #छोटी.बुआ ⚔️
हे इन पंक्तियों के सुधि पाठक ! सच्ची बात तो यह है कि मैं समझ ही नहीं पाया कि चार वर्षों तक चले जिस युद्ध में अधिकतम तीस देशों ने भाग लिया उसे प्रथम विश्वयुद्ध क्योंकर कहा गया?
उस युद्ध की समाप्ति के चार वर्षों के उपरांत अर्थात आज से ठीक एक सौ वर्ष पूर्व घटी जिस घटना का वृत्तांत मैं कहने जा रहा हूँ वो मुझे मेरी माताजी ने सुनाया था और यह सुनिश्चित है कि आप अपनी संतानों को यह कहानी अवश्य ही सुनाएंगे क्योंकि इस सत्यकथा का निष्कर्ष है “भय के आगे जीत है”।
यह तब की बात है जब विवाहोत्सव में बारात कई-कई दिन ठहरा करती थी और तबकी कहानी है जब बारात में महिलाओं का जाना निषिद्ध था।
बारात के जाते ही घर का प्रबंधन छोटी बुआ ने अपने हाथ में ले लिया। नाश्ते में किसको क्या पसंद है? दोपहर के भोजन में मीठा क्या बनेगा? संध्यासमय भोजनोपरांत किसको केसरवाला दूध चाहिए? अथवा किसको सादा पसंद है? पाकशाला में सब आदेश सुनाकर छोटी बुआ ने तीन चक्कर घर के बाहर भी लगाए।
हमारा घर गाँव के एक छोर पर था और अकेलासा भी था। प्रवेशद्वार के सामने पूर्व दिशा की ओर विशाल भूखंड हमारा क्रीडांगन था जिसके अंत में बूढ़ा बरगद का पेड़ खड़ा था। उत्तर दिशा में जौहड़ और हमारे घर के बीच जो रास्ता आगे चलकर बाईं ओर गाँव की सीमा बांधता हुआ दूर तक निकल जाता था वही रास्ता दाईं ओर मुड़कर जौहड़ के किनारे-किनारे चलता हुआ पक्की सड़क से जा मिलता था। उसी रास्ते से बारात गई थी। पश्चिम दिशा अर्थात हमारे घर के पिछवाड़े बहुत बड़ा भैंसों का तबेला था। और दक्षिण की ओर लसूड़े के तीन पेड़ एक पेड़ इमली का दो पेड़ बेर के और उन सबके बाद शिवालय था। इस प्रकार हमारा घर अकेलासा ही था।
छोटी बुआ दो बार छत पर भी गईं। चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई। मैं बुआ के साथ-साथ ही थी। ऐसा लगा जैसे बुआ किसी को खोज रही हैं और जिसे खोज रही हैं वो कहीं छुप गया है।
जब सूरज देवता लौटने लगे तब एक बार फिर बुआ छत पर गईं। कई-कई बार चारों ओर देखा। और अंत में जैसे वो मिल गया जिसे बुआ ढूंढ रही थीं। दूर जौहड़ के पश्चिमी किनारे पर एक व्यक्ति कुत्तों को कुछ खिला रहा था। न जाने कितनी सारी रोटियां थीं उसके पास कि कुत्तों का झुंड बढ़ता जा रहा था वो सबको रोटियां दिए जा रहा था तब भी उसके झोले का भार जैसे का तैसा ही दीखता था। बुआ बहुत समय तक गहन दृष्टि से उधर देखती रहीं। तदुपरांत लोहे की बड़ी चादर से मोखे को ढंककर नीचे उतर आईं।
सीढ़ी को नीचे उतारकर भैंसों के बाड़े की दीवार के साथ लिटा दिया। प्रवेशद्वार की सांकल लगाई। कुंडे में लोहे का बड़ासा कीला अड़ाया। लकड़ी के दो बड़े-बड़े लट्ठ द्वार के दोनों ओर ऐसे फंसाए कि वे एक दूसरे को काटकर गुणा का चिह्न बना रहे थे।
बुआ के माथे पर चिंता झलक रही थी। उधर घर के भीतर ढोलक बजने लगी थी। बड़ी चाची के गाने का स्वर गूँज रहा था। और, बुआ इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगा रही थीं। मैं घर में सबसे छोटी थी। और बड़े लोगों में छोटी बुआ सबसे छोटी थीं इसलिए वे मुझसे बहुत स्नेह रखती थीं और मैं भी उनसे बहुत-बहुत प्रेम करती थी। अतः भीतर का गाना-नाचना मुझे लुभा नहीं पाया। मैं छोटी बुआ के साथ थी और साथ ही थी।
पाकशाला में जाकर जानकारी ली कि किस-किसका भोजन जीमना शेष है। उन सबको खींच-खींचकर बुआ ने भोजन कराया। जिस-जिसको दूध चाहिए था उन्हें दूध का कठौता थमाया। जब सब निपट गया तब बुआ भीतर पहुंची।
ढोलक बंद करवाई। सबको शांत करवाया। तब घर में कुल बाईस महिलाएं और सत्ताईस बच्चे थे। मैंने दिन में खीर बांटते समय सबको गिना था। छोटी बुआ और मुझको मिलाकर यह संख्या क्रमशः तेईस और अट्ठाईस होती थी। लेकिन, इतने सारे लोगों के होते हुए भी अब सब ओर शांति थी। यह छोटी बुआ का प्रताप था।
बुआ ने सधे स्वर में धीमे-धीमे बोलना आरंभ किया, “घबराने अथवा चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। परंतु, सावधानी आवश्यक है। सचेत रहना होगा”, बुआ ने एक-एक से आँख मिलाकर उन्हें सहेजा और फिर कहा, “लगता है रात में चोर आएंगे।”
बड़ी मासी की चीख निकल गई। उनके गले में नौलड़िया हार था। कइयों के चेहरे का रंग उड़ गया। मंझली बुआ तो सचमुच रोने ही लगीं। तब छोटी बुआ जैसे डपटते हुए बोलीं, “विवाह के अवसर पर अपशकुन मत फैलाओ।”
ताईजी बोलीं, “तेरा कहा ठीक है छोटी। परंतु, यह सब जो इतना-इतना गहना पहनकर विवाह में आई हैं यदि इनकी कुछ भी हानि हुई तो हम कैसे भरपाई करेंगे?”
“तुझे कैसे पता कि रात में चोर आएंगे?” एक ने पूछा।
“मैं यहीं जन्मी-पली हूँ, चाची। गाँव में कौन कितने पानी में है और कौन बिन पानी के ही नहाया-धोया रहता है सब जानती हूँ मैं। इतना ही नहीं आसपास के गाँवों की भी चालढाल सब पहचानती हूँ।” बुआ का स्वर सधा हुआ और कठोर था।
“मैं तो अपनी जेठानी के कंगन भी मांगकर ले आई हूँ। कुछ ऊँचनीच हो गई तो मेरा तो मरण ही हो जाएगा छोटी।”
“किसी का कुछ नहीं जाएगा दीदी”, छोटी बुआ का स्वर निर्णायक था, “किसी का कुछ नहीं जाएगा”, मन-ही-मन में कुछ निश्चय करके वे फिर बोलीं, “तुम सब अपने-अपने गहने मुझे दे दो। यदि कुछ भी अघटित घटा तो भरपाई मैं करूंगी”, कोई प्रतिक्रिया न होती देखकर बुआ फिर बोली, “लाओ, विलंब मत करो। सब अपने-अपने गहने मुझे दे दो। मेरे पिता के घर से आज तक कोई रोता हुआ नहीं गया। माँ भवानी की शपथ! मैं ऐसा होने भी नहीं दूंगी।”
लाल रंग का रेशमी जोड़ा पहन रखा था छोटी बुआ ने। गोटा-किनारी और सितारों जड़ी चुनरी थी जिसे अब छोटी बुआ ने कसकर कमर में बांध लिया। बाल संवारकर फिर से मांग में सिंदूर सजा लिया। माथे पर बड़ीसी लाल बिंदिया। बड़ी मासी का नौलड़िया हार एकलड़िया करके गले में पहना तो वो बुआ की नाभि तक जा पहुंचा। उसके ऊपर एक मटरमाला और दूजी मटरमाला के ऊपर एक-एक करके पंद्रह-बीस हार। दोनों बांहों में कुहनियों तक कंगन। दोनों हाथ की आठों अंगुलियों और दोनों अंगूठों में भी अंगूठियां। इस पर भी कुछ शेष बचा तो सामने ढेरी लगाकर मोखे के नीचे मूढ़े पर तनकर बैठ गई छोटी बुआ। दाएं हाथ में कटार और बाएं हाथ में कुल्हाड़ी लिए। सामने आले में रखे दीपक के प्रकाश से आलोकित छोटी बुआ का दमकता-भभकता मुखमंडल. . .! यों लगता था जैसे साक्षात् माँ दुर्गा ही विराजमान हैं!
एक घड़ी बीती। घर के भीतर और बाहर दोनों ओर नीरवता व्याप रही थी। यों लगता था कि जैसे गाँवभर के कुत्ते किसी सगे की बारात में गए हों। दूसरी घड़ी भी बीत चली कि तभी छत पर बिल्ली के कूदने जैसा आभास हुआ। बुआ मुस्कुराई, “आ गए।”
किसी ने धीमे-धीमे मोखे से लोहे की चादर हटाई। नीचे सब जाग रहे थे। लेकिन, नीरव यों पसरा हुआ था कि चींटी छींके तो उसका नाद सुनाई दे। बुआ ने एकाग्रचित्त होकर सुना। तीन लोग थे। फुसफुसाकर बात कर रहे थे। तभी, ठीक तभी बुआ ऊँचे स्वर में बोली, “अरे शेरो. . ., ध्यान से देख लो। सेर भर सोना तो मेरे तन पर है और जो सामने ढेरी लगी है वो अलग से। आओ और ले जाओ।”
ऊपर से कोई उत्तर नहीं मिला। वे आपस में कुछ चर्चा कर रहे थे। नीचे बुआ उनके स्वर पहचान रही थी। तभी बुआ बोलीं, “बब्बन, पहले तू आ जा। तू ऊँचा बहुत है न। यह देख मेरे हाथ की कटार, आज इसीसे तुझे दस इंच छोटा करूंगी।”
कुछ पल की नीरवता के उपरांत ऊपर फिर से फुसफुसाहट आरंभ हुई ही थी कि बुआ की ललकार गूँजी, “कालू लंगड़े, तू भागता बहुत तीव्रगति से है। यह कुल्हाड़ी देख रहा है न. . .आज से तेरा नाम सार्थक हो जाएगा, कालू लंगड़ा।”
कालू लंगड़ा वास्तव में लंगड़ा नहीं था। एक बार उसे कुत्ते ने काट लिया था। तब कुछ दिन वो ऐसा लंगड़ाकर चला कि उसका नाम ही पड़ गया, कालू लंगड़ा।
कुछ पल बीते। फिर कुछ और पल बीते। कोई कुछ नहीं बोला। ऊपर नीचे दोनों ओर शांति. . .और केवल शांति। तभी अचानक छोटी बुआ उठकर खड़ी हो गईं. . .दाहिने हाथ में कटार और बाएं हाथ में कुल्हाड़ी लिए दोनों बांहें फैलाए. . .आँखों से क्रोध की चिनगारियाँ बरस रही थीं. . .बुआ का ऊँचा स्वर और ऊँचा होता हुआ छत दीवारों को भेदता हुआ गूँज रहा था, “सक्कू कमीने. . .! क्या सोच रहा है? सलीमा और फत्तो विवाह के चाव में इतना कुछ खा गईं कि दोनों औंधी पड़ी हैं. . .तभी तो तेरे लिए द्वार खोलने न आ सकीं। आ जा. . .माँ का दूध पिया है तो आ जा. . .बहुत जी लिया तूने। धरती माँ का कुछ तो बोझ घटे।”
अब रात ढल रही थी। पल घड़ियाँ बीतते जा रहे थे। सूरज की खोज में भटकता चाँद घर लौटने को था। तभी छोटी बुआ का स्वर फिर गूँजा, “प्राची भगवा होने को है निशाचरो. . .जाओ. . .कल रात फिर से आना. . .एक दिन और जी लो।”
मेरी समझ में यह बात नहीं आई कि यहाँ तो छोटे-बड़े सब छोटी बुआ का कहना मानते हैं तब उन तीनों ने क्यों बुआ की अवज्ञा की? अगली रात और उससे भी अगली रात वे लौटकर नहीं आए।
#वेदप्रकाश लाम्बा
यमुनानगर (हरियाणा)
९४६६०-१७३१२