छलावा
क्या कहूँ
किसने छला
तुमने?
या मेरे अपने मन ने?
चाहतों ने?
ख्वाहिशों ने?
कौन था
आखिर छलावा?
कोर मेरे
नयन की
उस वक्त
जाने क्यों हुई नम
जब मुझे
तुम ने कहा,
‘‘वर्षों से,
मेरे साथ के कमरे की
उस दीवार से
बिल्कुल सटे,
उस कक्ष में
चुपचाप-गुमसुम
तुम अभावों से घिरे-से
रह रहे थे
सामने से हो
गुज़र जाते थे,
तुम थे
हाँ, तुम्हीं थे।’
बौखला कर
मैंने तब
खुद को टटोला
खीज उट्ठी
मेरे नारायण
क्षमा करदो मुझे अब
मैं तुम्हें
हरदम तलाशा की
कर्म की भीड़ में
मन का
कोई कोना न झांका
सामने क्योंकर न देखा?
वो किसी का
दुख था
या लाचारपन था
बस मुझे
अपनी ही दुख
अपना लगा था
मैं अगर कमरे की खिड़की
खोल देती
झांक कर अपने पड़ौसी
के वो अश्रु पोंछ देती
तुम मुझे
मुझ में ही मिल जाते
यकीनन!